भाषाकी अनस्थिरता भी इसमें कई जगह दुमकी कसर रह गई है। द्विवेदीजी कह सकते हैं कि मुमूर्षुके आगे श्यामा या पत्नी शब्द क्यों न हो ? नहीं तो “फेर लेती है" क्रिया ठीक नहीं होती, “सब लोग बाहर चले गये” की जगह “वे सब लोग बाहर चले गये" क्यों न हो ? ___ जो अनुवाद ऊपर आत्मारामकी तरफसे हुआ है, उसके पहले वाक्यमें “पड़ी है" दूसरमें "है" जोड़ देनेसे अर्थ साफ हो जाता है । पर द्विवेदीजीके व्याकरणसे इसे ठीक किया जाय तो बहुतसे शब्द इसके गलेमें लटकाने पड़ें। विशेषकर “उसके” और “उसकी" का खर्च तो बहुत ही बढ़जाय। और "अवशिष्ट परमायु" से पहले एक “उसकी" लगाये बिना तो वह कभी न माने । उधर बंगला उदाहरणको देखिये तो उसके पहले और दूसरे वाक्यमें क्रिया ही नदारद है। क्रियाका गायब कर डालना द्विवेदीजीके व्याकरणकी रूसे जुर्म है। पर बंगालमें ऐसे मौकों पर क्रिया उड़ा देना ही फसीह समझा जाता है। यहां तक कि स्वयं द्विवेदीजी भी उसे निर्दोष समझकर उदाहरण स्वरूप नकल करते हैं । पर हिन्दीवाले यदि कहीं कर्ता, कर्म या क्रिया रचनाको सुन्दर बनानेके लिये छोड़ दें तो आप उन्हें दोष देते हैं। इस समझके कुरबान ! जरा बंगलाको सामने रखकर ही श्रीमान् अपनी भाषाका मिलान करते। अंगरेजो, संस्कृत, बंगला और मराठीके उदाहरण आपने जिन कागजोंसे नकल किये हैं, उनका नाम दिया है। पर हिन्दीके उदाहरण पर यह कृपा नहीं की गई। जिस पत्रसे हिन्दीका उदाहरण लिया, उसका नाम द्विवेदीजीने नहीं दिया। यदि नाम देते तो लोग इतना तो समझ जाते कि अमुक पत्र बड़ा भाग्यवान है, जिसकी चन्द पंक्तियां द्विवेदीजीके व्याकरणसे शुद्ध निकल आई। खैर, उस पत्रको भी द्विवेदीजीने गजस्नान करा दिया है। पहले चन्द पंक्तियोंको अच्छा कहकर पीछे कुछ पंक्तियोंकी भूलें दिखा डाली हैं। [ ४७३ ]
पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४९०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।