भाषाकी अनस्थिरता पन न मिलनेसे उनकी पुस्तकोंपर हाथ डालते हैं, नहीं तो नहीं । अब यदि सब छापेखानेवाले और पोथियोंवाले मिलकर उन्हें अपने विज्ञापनोंको भूलें निकालनेका आम मुखतारनामा दे दे तो एक अच्छी आफतसे छूट। साल दो सालमें द्विवेदीजी सब विज्ञापनोंको अपने व्याकरणसे ठोक करके रख दें। ऐसा हो तो हिन्दीसाहित्यकी एक बड़ी भारी सेवा हो। जैसे कि ईसपकी कहानीवाले मोचीने कहा था कि यदि नगरके आसपास चमड़ेकी दीवार बना दी जाय तो किसी शत्रुका कुछ भय न रहे। देखिये तो हरिश्चन्द्र की भांति द्विवेदीजी गदा- धर सिंहको भी एक सूचनाहीसे पकड़ते हैं- “यन्त्रालयाध्यक्ष महाशयकी इसपर ऐसी कृपा हुई कि आज एक वर्षमें छापकर अब आप लोगोंके हस्तगत करनेके योग्य किया है।" ____ इस इबारतमें “आज" और "अब" दो शब्द हैं। उनमें एक अधिक है। चाहे “अब" को निकाल दीजिये चाहे "आज" को, इबा- रत ठीक हो जायगो। यहां दोनों शब्दोंका अर्थ एकही है। उनमेंसे एक असावधानीके कारण जुड़ गया है। पर द्विवेदीजी इसपर बड़ा तूल-कलाम करते हैं। कहते हैं कि इसमें एक “इसे” या “इसको"की जरूरत है। ‘किया है' का कर्म जरूर चाहिये। उसके बिना वाक्यकी टंगड़ी टूटी जाती है। सकर्मक क्रियाके कर्ताके आगे कर्ताका चिह्न "ने” आना चाहिये । अतएव “कृपा हुई" के बाद कहीं पर “आपने" या "उन्होंने" की जरूरत जान पड़ती है। बड़ी आफत है, पीछा छुड़ाना दूभर हो गया। अरे! बाबा एकही तो वाक्य है ? उसमें जब एक जगह “इसपर" मौजूद है तो फिर आपके "इसे” या “इसको"के उसमें जबरदस्ती घुस बैठनेकी क्या जरूरत है ? क्या आपको यह भय है कि आपके “इसके” की सहायताके बिना यन्त्रालयाध्यक्ष महाशय पोथीके बदले गदाधरसिंह- [ ४६३ ]
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