पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४७०

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भाषाकी अनस्थिरता इस वाक्यमें छापेकी एक बहुत छोटीसी भूल रह गई है। इस प्रकारको भूलको अंगरेजीके विद्वान दिल्लगीसे प्रसक भूतोंका काम बताया करते हैं। “का” की जगह "को” या “को' की जगह “का” उक्त भूत सहज में बना डालते हैं। पढ़े लिखे वैसी भूलोंको लेखकके सिर तो कहां संशोधकके सिर भी नहीं मढते। क्योंकि वह शुद्ध छपने या न छपनेका जिम्मेदार नहीं होता। संशोधकोंके विषयमें भी वह खूब जानते हैं कि वह प्रूफ भलीभांति शुद्ध करके जाते हैं, पर छापेखानेके भूत अपनी कारीगरीसे कभी कभी ऐसे अक्षर वहाँ जोड़ देते हैं कि उस संशोधनका एक विचित्र ही संशोधन हो जाता है । ऊपरके वाक्यमें छापेखानेके भूतने पहले तो “का”की जगह “को” बना दिया है, पीछे “को"की जगह “का” जोड़ दिया है ; शुद्ध वाक्य इस प्रकार था-"मेरी बनाई वा अनुवादित वा संग्रह की हुई पुस्तकोंका श्री बाबूरामदीनसिंह 'खङ्गविलास' के स्वामीको कुल अधिकार है।" स्कूलोंमें जो विद्यार्थी व्याकरण सीखते हैं, उन्हें ऐसे वाक्य शिक्षक शुद्ध करनेको देते हैं । विद्यार्थी उन्हें चटपट शुद्ध करके शिक्षकके हवाले कर देते हैं। पर हमारे श्री द्विवेदीजी महाराजने इस डेढ़ वाक्यको बहुत भारी काम समझा है। आप उसे द्रोणगिरिकी भांति कन्धेपर रख लाये हैं। आपकी आज्ञा सुनिये - "इस वाक्यमें पुस्तकोंके आगे कर्मका चिन्ह "को” विचारणीय है। (हिन्दीके कर्म फूट गये। ) पुस्तकों * * * * को स्वामीका कुल अधिकार है। यह बात व्याकरणसिद्ध नहीं।” सचमुच २३ साल हो गये, इतनी भारी भूल किसीसे न पकड़ी गई थी। आप दूरकी कौड़ी लाये हैं । खैर, आपका संशोधन देखिये-“यदि 'को' के आगे 'छापने' का ये दो शब्द आ जाते तो वाक्यकी शिथिलता जाती रहती।" 'छापने' का एक अधूरा वाक्य है या दो शब्द ? यदि दो शब्द ठहराते हैं तो इनके बीचमें और क्यों नहीं जोड़ते ? 'छापने' और 'का' जबतक [ ४५३ ]