गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना जाननेके नियम होते हैं।" क्या गुठल इबारत है। मजाल है, कोई जरा अर्थ समझ जाय ! खैर, आपने इसको सरल करनेकी चेष्टा इस प्रकार की है-"अथवा यों कहिये कि जिसके पढ़नेसे ठीक-ठीक लिखना और बोलना आता है ।” बारह साल के बाद तो बावाने कहा कि बच्चा ! फावड़ीका नाम गुलसफा है ! आगे द्विवेदीजीने व्याकरणकी जरूरतपर सिरखपी की है। बहुतसी देहाती दलीलोंको उलट-पलट करनेके बाद इस सिद्धान्तपर आकर ठहरे हैं-"अतएव व्याकरणकी आवश्यकता सिर्फ इस लिये है कि नियम रचनाके द्वारा सब प्रान्तोंके लिये वह एक-सी भाषा सङ्गठित करें।” अर्थात् बैसवाड़े और मन्द्राजके लिये एक ही भाषा सङ्गठित कर डाले! खैर साहब, करै तो करै और न कर तो न करै ; कितनी ही व्याकरणदानीका दावा करके भी आप अपने देशकी करै-सरैको मत छोड़िये। पर यह तो कहिये कि ऊपरवाले वाक्यमें "सिर्फ” की जरूरत और “नियम रचना” का अर्थ क्या है ? ___ अब दो एक बातें द्विवेदीजीकी व्याकरणदानीके विषयमें और कहना चाहते हैं। आप लिखते हैं “नया-नया साहित्य हमेशा उत्पन्न हुआ करता है।” नहीं जनाब, नया साहित्य हमेशा या नित्य नया साहित्य कहिये। हमेशाके साथ दो बार नया रहनेसे आपका व्याकरण नाराज हो जायगा। आप लिखते हैं-"किसी भी व्याकरणके नियम-" इस वाक्यमें खाली 'किसी' चाहिये। किसीमें 'भी' तो आपही मौजूद है। यों लिखनेवाले तो “कभी भी” लिख डालनेसे भी नहीं चूकते। “भाषा को स्थिरता आ जाती है" की जगह “भाषामें स्थिरता आ जाती है"- चाहिये। स्थिरता कुछ नींद नहीं है, जो भाषाको आवे। इस तूल कलामके बाद द्विवेदीजी लिखते हैं-"बहुत दिनसे हिन्दी- भाषा लिखी जाती है। (जनाब खता मुआफ ! पढ़ी भी जाती है)-पर [ ४३८ ]
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