पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४२५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास इस बातपर बराबर ध्यान था कि जहां तक हो सके यह अच्छी रीतिसे चले। यद्यपि यह हिन्दीका साप्ताहिक पत्र था, तथापि खबरें इसमें बहुत ताजा निकलती थीं। ३० अकोबर सन् १८८३ ई० को स्वामी दया- नन्दजीका देहान्त हुआ और पहली नवम्बरके भारतमित्रमें वह खबर निकल गई। ८ नवम्बरके पत्रमें "स्वामी दयानन्द सरस्वती” नामका एक लेख निकला है। उसमें स्वामी दयानन्दजीकी बहुत कुछ प्रशंसा की गई है और उनको महात्मा कहकर स्मरण किया गया है। किन्तु साथही उनके कामों में जो कुछ दोष थे उनकी भी उचित समालोचना की गई है। उसमेंसे हम थोडासा उद्धृत करते हैं- ____ "इस महात्माके जो जो सङ्कल्प थे यदि सब पूर्ण हो जाते तो हमें इनके मरनेका इतना बड़ा शोक न होता। पर किन किन कारणोंसे इनके मनोरथ सिद्ध न हुए उनका कह देना भी इस समय बहुत जरूरी जान पड़ता है। जिस जिसने हिन्दुस्तानका इतिहास पढ़ा है वह जानता होगा कि एक समय काशी मथरा और उज्जैन आदि दो चार नगरोंको छोड़कर सारा हिन्दुस्तान बौद्ध हो गया था। परन्तु ब्राह्मणोंकी सहा- यतासे कितनी जल्दी शङ्कराचार्यजीने इस धर्मको यहांसे जड़से उखाड़ दिया था और उसके स्थानमें आर्य धर्म प्रचलित किया था। ब्राह्मण लोग हिन्दू जातिके अगवे हैं, सारी हिन्दू जाति अब तक भी हाथ जोड़े हुए इन देवताओंकी आज्ञामें चल रही है। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि बहुतसे ब्राह्मणोंने पढ़ना लिग्वना छोड़ दिया है परन्तु यह समयकी गति है उनका प्रभुत्व अभी ज्योंका त्यों बना है। ऐसी बंधी हुई शृङ्खलाको तोड़नेवाला और ब्राह्मणोंकी सहायता लेकर काम न करनेवाला हिन्दु- जातिकी कभी उन्नति नहीं कर सकता। यही कारण है कि जिससे दयानन्द सरस्वती कृत कार्य न हो सका। ब्राह्मणोंकी सहायता लेनी तो एक ओर रही वह ब्राह्मण जातिकी बहुत निन्दा करता था।" [ ४०८ ]