पण्डित देवीसहाय सिवा गीतापर एक उत्तम हिन्दी टीका करते थे, पर पूरी न कर सके । मारांश यह कि मारवाड़ियोंमें एक अपूर्व रत्न थे । आश्विन शुक्ला अष्टमी संवन १६१३ में आपका जन्म हुआ था। इस समय उमर लगभग ४७ वपके थी। पिताका नाम भजनरामजी था। मात वर्षकी उमर तक घर रहे। पीछे पितृन्य बलदेवजीक साथ पञ्जाब अमृतसर गये। वहीं पढ़े । पंडित कृष्णदत्तजी उनके गुरु थे । लड़कपनमें दरिद्रता और पीड़ा आदिक कितनेही क्लश भोगते हुए उन्होंने संस्कृत विद्याको सीखा। व्याकरण, काव्य, कोप, अलङ्कारमें निपुण हुए। अन्तमें काशीमें महामहोपाध्याय पंडित राम मिश्र शास्त्रीजीसे पढ़े। जन्मस्थानमें हरशङ्कर नामोच्चारण पूर्वक पार्थिव शिवाचन करते, गंगाजल पीते, गोमय-लेपित कुशासनपर सिद्धासन बैठकर नेत्रमागसे प्राण-त्याग किया। मृत्युसे दो दिन पहले मब संसारी बात छोड़कर कंवल हरशंकरका नाम लेते थे। मृत्युसे पहले, ब्राह्मण-भोजन, दान-पुण्य, गोदान आदि निष्ठावान ब्राह्मणोंके करने योग्य मब कार्य सम्पादन कराये। प्राणत्यागसे ४ घण्टे पहले भूमिपर विराजे। उनके इस थोड़ी उमरमें उठ जानेसे मारवाड़ी समाजकी बड़ी हानि हुई, इसमें मन्देह नहीं। इम देशका जो कुछ चला जाता है, वह फिर नहीं लौटता । पंडित देवीसहायजीका स्थान पूरा करनेके लिये, वैसा योग्य पुरुष दिखाई नहीं देता। उनमें अनेक गुण थे। जो कुछ करते थे, आडम्बर रहित होकर करते थे । बङ्गवासी-पत्रपर एक समय विपद् पड़ी थी, वह राजविद्रोहमें पकड़ा गया था। उस समय पं० देवीसहायजीने उसके लिये चुपचाप कई हजारका चन्दा करादिया था। और कितनेही काम उनके वैसेही थे। माता, एक छोटा भाई और एक भतीजा छोड़ गये हैं। छोटे भाईक ८ वर्षके पुत्र श्रीकण्ठको अपना पुत्र मानते थे। वह व्याकरण पढ़ता है । ईश्वर उसकी बड़ी आयु करे । वह पिताकी भांति कीर्तिमान [ २५ ]
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