पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४१८

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हिन्दी-अखबार प्रथम वर्ष २६ दिसम्बर १८७८ ई. तक “भारतमित्र” की २४ संख्याएं निकलीं। दूसरा वर्ष जनवरी १८७६ ई० से आरम्भ हुआ। जो हिन्दी मोटिव पत्रके मस्तक पर लिखा जाता था, वह उठ गया। ८ मई १८७६ का भारतमित्र अपने घरके छापेखानेमें छपकर निकला और उसका आकार भी दूना हो गया अर्थात डिमाई साईजके चार वरकों पर छपने लगा। इस प्रकार एक साल बाद भारतमित्रके घरका प्रस हुआ। यह वह समय था कि जब कलकत्तमें हिन्दीका न कोई प्रेस था, न कोई अखबार । हिन्दी छापने वालोंको बंगाली प्रेसोंमें जाकर काम निकालना पड़ता था। कलकत्तमें बंगभाषाके आजकल जो नामी पत्र कहलाते हैं, वह उस समय भविष्यके गर्भ में निहित थे ; बंगभाषाके जो पत्र उस समय जारी थे, उनमें “सहचर” और “सोमप्रकाश" का बहुत नाम था। अब उक्त दोनों पत्र नहीं हैं। हिन्दीके पत्रोंमें उस समय बाबू हरिश्चन्द्रकी “कविवचन सुधा" नामकी पत्रिका प्रसिद्ध थी। “बिहारवन्धु" भी निकलता था। भारतमित्रके आरम्भमें ही उसके साथ नोक झोक होगई थी । नोक झोक- का कारण वही वाक्य था,जो हमने ऊपर उद्धृत किया है। बिहारबन्धुजी भारतमित्रकी उस समयकी भाषाको बुरा कहने चले थे, पर वह स्वयं कितनी अच्छी भाषा लिखते थे, वह उस नमूनेसे देखना चाहिये। जान पड़ता है कि नोक झोक सनातनसे चली आती है। वह मनुष्यके स्वभावसे मिली हुई है। ___ एक सालके भीतर भारतमित्रको कई संवाददाता मिल गये थे। पत्र- प्रेरकोंके लेख इसमें छपने लगे थे। २२ जून सन् १८७६ के भारतमित्रमें श्रीराधाचरण गोस्वामीजीकी एक चिट्ठी छपी है, जिसमें आनन्द प्रकाश किया है कि स्वामी दयानन्दसे वेद सीखनेके लिये कई एक अमेरिकाके पादरी बम्बईमें आये हैं। उसी संख्या एक चिट्ठी रमाबाईकी छपी है, [ ४०१ ] m