हिन्दी-अखबार बी० ए० । यह पत्रिका साप्ताहिक थी, वही हरिश्चन्द्री ढङ्ग इमका भी था। कविवचनसुधाकी भांति इसमें “सत्यहरिश्चन्द्र", "कर्पूरमञ्जरी" आदि कई- एक नाटक बाबू हरिश्चन्द्रजीके बनाये हुए छपे। पर यह ढंग उसका बहुत दिनतक नहीं रहा। आगे चलकर यह स्कूलके बालकोंकी पत्रिका बना दी गई। बालकोंके पढ़ने योग्य विषयही इसमें होने लगे। थोड़े दिन पीछे इसकी भाषा उर्दू होगई, केवल अक्षर नागरी रहे। अन्तमें भाषा एकदम उर्दू और अक्षर एक पृष्ठमें उर्दू और दुसरेमें नागरी होने लगे। उर्दू भी ऐसी कि नागरी अक्षरोंमें उसका पढ़ना बुरा मालूम होता था। बाबू बालेश्वरप्रसादने स्कूलमाष्टरसे डिपुटी कलकर होजाने पर उक्त पत्रिका राय बहादुर पण्डित लक्ष्मीशङ्कर मिश्र एम० ए० को देदी। उनके समयमें यह बिलकुल स्कूली पत्रिका बन गई और सरकारी सहायता पर चलने लगी। स्कूलोंहीमें इसकी खपत थी। उसमें अधिकतर सरिश्ते तालीमकी बात छपती थीं और प्रायः हर नम्बरमें एक गणितका प्रश्न छपता था, जिसको हल करके स्कूलमाष्टर तथा विद्यार्थी लोग भेजते थे । सही उत्तर देनेवालोंके नाम धाम भी इस पत्रिकामें छपते थे। कुछ दिन कोई विषय देकर मुदरिसोंसे पद्य लिखवाया जाता था, जिन्हें साल भर पर शायद कुछ इनाम भी मिलता था। सारांश यह कि स्कूलोंहीमें यह पढ़ी जाती थी। स्कूलके बाहरके लोग इसकी बहुत कम परवा करते थे । १८८७ ई० में उसमें पण्डित श्रीधर पाठककी बनाई “ऊजड़गाम” नामकी कविता छपती थी। फिर एक उन्हींका लेख “तिलस्मातीमुंदरी” नामका उक्त पत्रिकामें कुछ दिन छपा था। तब कुछ लोगोंका इसकी ओर ध्यान हुआ था, पीछे वह लेख बन्द होगये। पाठकजीकी मुंदरी भी अपना तिलिस्मात दिखाये बिनाही रह गई। १८६४ ई० तक यह बराबर सर- कारी सहायतासे चलती रही। पीछे राजा रामपालसिंहके प्रान्तीय कौंसिल में प्रश्न उठानेपर लखनऊके “अवध-अखबार", अलीगढ़के “इन्सटी- [ ३२९ ।
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