पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३४४

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हिन्दी-अखबार आदर करते थे। बाबू साहब घर-घर कोठी-कोठी घूमकर लोगोंको ग्राहक बनाते थे। कुछ ग्राहक ऐसे थे, जिन्हें समाचार-पत्रोंपर जरा भी विश्वास न था । कितनेही लोग उसे सरकारी पत्र समझते थे । कुछ ग्राहक यह भी कहते थे कि जब पत्र निकले तब आकर सुना जाया करो। सारांश यह कि जो जिस प्रकार ग्राहक होना स्वीकार करता था, उसे वह उसी प्रकार ग्राहक बनाते थे। यह पत्र थोड़ही दिन चलकर बन्द होगया था। ठीक ऐसी ही दशा भारतमित्रकी हुई थी। “भारतमित्र" यद्यपि उससे पाँच साल पीछे निकला था, तो भी लोगोंकी वैसीही रुचि बनी हुई थी। भारतमित्रके उत्साही चलानेवालोंमें एक दो सज्जन ऐसे थे जो अपने ग्राहकोंको स्वयं अखधार सुना आया करते। महारानी स्वर्णमयी और स्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्र हिन्दी दीपिप्रकाशके प्रधान उत्साह दाताओं- मेंसे थे। उस पुराने अंकुरका यह फल है कि इस समय अच्छे हिन्दी अग्वबारोंका केन्द्र स्थान कलकत्ता ही बना हुआ है। बिहारबन्धु बांकीपुरका “बिहारबन्धु” हिन्दीके पुराने जीवित अखबारोंमें दूसरा है । यह सन १८७२ ई० में पण्डित श्री केशवराम भट्ट और साधोरामजी भट्टके उद्योगसे साप्ताहिक निकला। सन १८८७ ई० में हमने उसे साप्ताहिक रूपमें देखा था। उसकी भाषा सदासे उर्द मिश्रित हिन्दी होती है और अच्छी होती है, गंवारी नहीं होती। तब वह एक शीट रायलके चार वरक पर निकलता था। आजकल उसकी बहुत गिरी हुई दशा है, महीनेमें दो बार निकलता है और फुलिसकेप आकारके चार पन्नों- पर निकलता है । इससे पहले कुछ दिन मासिक निकलता रहा। लेख उसमें अब भी जब तब अच्छे होते हैं। सम्पादककी मौजपर सब कुछ निर्भर है। कभी मौज आती है, अच्छा लिख देते हैं, नहीं तो जैसा तैसा निकले जाता है। इस साल १५ नवम्बर तक उसके २० नम्बर निकले । प्रान्तीय [ ३२७ ]