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पं० देवकीनन्दन तिवारी काम कर डालते। अन्तमें उन्होंने एक शारदा-मठ बनवाया, जिसमें एक सरस्वतीकी मूर्ति स्थापिन की। उमका उद्देश्य यह था कि जिनको स्थान न मिले, वह वहाँ एकत्र होकर क्लब, कमेटी, मभा आदि किया करं ।। अन्तमें यह सनातन-धर्मके बड़े पोषक और आर्य-समाजके प्रतिपक्षी होगये थे, यद्यपि पहले स्वयं ब्राह्मधर्मकी ओर झुके हुए तथा न्यारे-न्यारे चौकेके बड़े विरोधी थे। आलागम म्वामीपर जब मुकद्दमा कायम हुआ तो आपने उनकी बड़ी मदद की थी।" ___यहाँ तक तो वह सब बात हुई, जो भट्टजी महाराजने कृपाकरके लिख भेजी हैं। अब हम वह बात लिखते हैं, जो स्वयं जानते तथा दूसरोंसे सुनी हैं। सन १८८६ ईम्वीके आरम्भमें पण्डित श्रीदीनदयालु शम्माने श्रीवृन्दावन-धाममें भारतधर्म-महामण्डलका दृसग बड़ा अधिवेशन कराया था। दूर दृरके धम्मपरायण हिन्दृ उस अवसरपर वहाँ पधारे थे । प्रयागसे पण्डित मदनमोहनजी मालवीय पधारे थे। उस समय पण्डित देवकीनन्दन तिवारीजी भी वहां पधारे थे । लम्बे पतले आदमी थे, रङ्ग मांवला और उमर ढलती हुई। माथ कई एक शिष्य थे, जो उनकी बनाई पाठशालामें पढ़ते थे। अपनी बनाई पोथियोंकी गठड़ी बगलमें रखते थे, उनको बेचते और बांटते भी जाते थे। एक मोटी 'कमरी' पहने हुए थे, सिरपर एक गोल बड़ी भद्दी टोपी थी, जो उस प्रान्तके पुरानी चालके ब्राह्मण बहुधा पहना करते हैं। उनके वेश आदिसे उनकी गरीबी जाहिर होती थी, पर बड़े तेजस्वी थे। बड़े बड़े पण्डितों और उपदेशकोंने महामण्डलसे आने जानेका भाड़ा लिया था, पर उन्होंने नहीं लिया। कहा, इसी तरह काम चल जाता है। ऐसे कामोंमें भाड़ा लेना मैं पसन्द नहीं करता। गरीब थे तो क्या, गरीबीमें इतनी बेपरवाई बहुत कम लोग दिखा सकते हैं। तिसपर भी एक गुमनामीकी हालतमें वह हिन्दीकी जितनी सेवा कर गये हैं, वह भट्टजीकी चिट्ठीसे स्पष्ट है। पूरी वाल्मीकि [ १७ ]