पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३३६

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हिन्दी-अखबार कभी-कभी दिल्लगीका लेख या पञ्च भी उसमें होता था और हर एक नम्बरमें हरिश्चन्द्रजीकी बनाई हुई कुछ कविता होती थीं। कवितासे खाली बहुत कम नम्बर रहने पाते थे। कवितामें अधिक सूरदासजीके ढंगके पद होते थे। पदोंमें हरिश्चन्द्रजीने सूरदामजीका बहुत कुछ अनुकरण किया है । कवितामेंसे कुछ नमूना देते हैं- ___जनमत ही क्यों हम नाहीं मरी, सग्वि विधना विध ना कछु जानत उलटी सबहि करी । हरि आछत वृजचार चवाइन करिनिन्दा निदरी। तिन भय मुखहुलग्वन नहिं पायो, हौंस हिरहत भरी । अब हरिसो व्रज छोड़ि अनत रहे, विलपत विरह जरी। यह दुख देग्व नहीं जनमाई बारहि विपद परी। सुख केहि कहत न जान्यो सपनेहु दुखही रहत दरी । हरीचन्द मोहि सिरजि विधिह नहिं जानौं कहासरी । यह मन पारदहूं सों चञ्चल । एक पलकमें ज्ञान विचारत, दृजेमें तिय अञ्चल ।। ठहरत कतहुं न डोलत इत उत, रहत सदा बौरानो । ज्ञानध्यानकी आन न मानत, याको लम्पट बानो ।। तासों याकहं कृष्ण विरह तप, जो कोउ ताप तपावै । हरीचन्द सों जीति याहि, हरि भजन रसायन पावै।। नाथ मैं केहि विधि जिय समझाऊं। बातनसों यह मानत नाहीं, कैसे कहो मनाऊं। जदपि याहि विश्वास परम दृढ़, वेदपुरानहु साखी । कछु अनुभवहू होत कहत है, जद्यपि सोई बहु भाखी ।। [ ३१९ ]