हिन्दी-अखबार कवियोंका काव्य प्रकाशित होता था। कवि देवका "अष्टयाम” दीनदयालु- गिरिका “अनुरागबाग", चन्दका "रासा", मलिक मुहम्मदकी “पद्मावत”, कबीरकी “साखी' बिहारीके दोहे, गिरधरदासका “नहुपनाटक", गुलिम्ता- नका अनुवाद आदि पुस्तक उसमें छपने लगीं। संसारमें सदा पद्यहीसे अच्छी भाषाओंको कल्याणका मार्ग मिलता आया है। पद्य लिखते छापते हरिश्चन्द्रजीको गद्यकी सुध आ गई। उन्होंने देखा कि गद्यमें भारतके मब प्रान्त बढ़ रहे हैं, केवल हिन्दीवाले ही बेसुध हैं। इतना विचार आते ही उन्होंने कविवचनसुधाको पाक्षिक और फिर माता- हिक किया। राजनीति, समाजनीति आदि पर लेख लिग्वने आरम्भ किये। उस पत्रका सिद्धान्त वाक्य यह था -- "खल गगनसों सज्जन दुखो मति होहिं, हरिपद मति रहै । अपधर्म छुटे, स्वत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै ।। बुध तज हि मत्सर, नारि नर सम हाहि, जग आनन्द लहै । तजि ग्राम कविता, सुकविजनकी अमृतवानी सब कहै ।।" इम सिद्धान्तमें राजनीति, समाजनीति सब है, साथ साथ धर्मनीति भी है और उसमें बाबू हरिश्चन्द्रजीका जो कुछ मत था वह भी झलकता है। अर्थात् “हरिपद मति रहै" और "नारी नर सम होहिं" का गङ्गा- मदारका जोड़ा भी साथ साथ है। सरकारने भी कविवचन सुधाकी सौ कापियां खरीदी थीं। जब उक्त पत्र पाक्षिक होकर राजनीति सम्बन्धी और दूसरे लेख स्वाधीनता भावसे लिखने लगा तो बड़ा आन्दोलन मचा। यद्यपि हाकिमोंमें बाबू हरिश्चन्द्रको बड़ो प्रतिष्ठा थो, वह आनरेरी मजिष्ट्रेट किये गये थे, तथापि वह निडर होकर लिखते रहे और सर्व-साधारणमें उनके पत्रका आदर होने लगा। वह साप्ताहिक प्रकाशित होने लगा। यद्यपि हिन्दी भाषाके प्रमी उस समय बहुत कम थे तो भी हरिश्चन्द्रके ललित लेखोंने लोगोंके [ ३१५ ]
पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३३२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।