गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास बहुत पसन्द हुआ। रंगीन मिजाज पण्डितजीने अपना फिसाना अंग्रेजीकी चाशनी देकर एशियाई ढङ्गपर लिखा। उनपर उर्दूवाले लहालोट होगये। फिसानेकी बड़ी इज्जत हुई। यहाँ तक कि उसकी कीमत कोई सोलह रुपये होनेपर भी इन कई एक सालमें वह चार पांच बार छप चुका है। पण्डित रत्ननाथ अंग्रेजी पढ़ हुए थे और अंग्रेजी ढंग पसन्द करते थे। यहाँ तक कि कोट-पतलून ही बहुधा डाटे रहते थे, तिसपर भी वह पुराने ढांचेके लेखक थे उनके लेख वही पुराने ढांचे पर जाते थे। वह उनमें अंग्रजी ढङ्ग लानेकी चेष्टा करते थे, पर उनकी तबीयत उनके लेखोंको एशियाहीकी तरफ ग्वंच लाती थी। उनका "फिसाना" तो अलग दो सफेद पन्नोंपर निकलता था और अवध अखबार- का कागज उन दिनों कभी हिनाई और कभी मटिया रंगका होता था। उनके उस समयके कितने ही लम्बे लम्बे लेग्वोंका हमें स्मरण होता है । उनमें खाली वातही बात होती थी। साहित्यके लेवसे यह लेख बुरे नहीं होते थे, पर एक दैनिक समाचारपत्रके योग्य वह किसी तरह न थे । शायद वह अखबारोंके लायक लेख न लिख सकते हों, क्योंकि कभी गम्भीर राजनीतिक या समाजनीतिक लेख उनकी कलमसे निकले हुए हमने नहीं देखे । वह जब लिखते थे, दिल्लगी या कहानी या और उसी ढङ्गके लेख । इसका कारण यह भी हो सकता है कि अवध अखबारहीमें उस समय राजनीतिक आदिलेग्य नहीं लिखे जाते थे और न लखनऊ में कोई और अखबार ही उस समय राजनीतिक था। यदि राजनीतिकी चर्चा उस समय होती तो सम्भव था कि वह भी उस ढङ्गपर कुछ चलते । ___पर हमें पण्डितजीकी बात नहीं कहना है, कहना है "अवध अखबार" की । जहाँ तक हम समझते हैं, तबसे अब तक "अवध अखबार" ने कोई ज्नति नहीं की। वह जैसा २० साल पहले था, वैसा ही अब भी है और यही कारण है कि इन २० सालमें अखबारी दुनियामें उसका कुछ [ २६२ ]
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