पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/२६

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पं० प्रतापनारायण मिश्र पिताजीसे बड़ी प्रीति करती थीं। पर एक चाचीका हमें दशन नहीं हुआ। दूसरी चाची सदा पुत्रकी भांति हमारे जन्मदाताको जानती थीं। पर हमारे अभाग्यसे हम तीन वर्षके थे, तभी परमधाम यात्रा करगई । यह श्रीरामानुज स्वामीके सम्प्रदायकी थी, क्योंकि इनके पितृ-कुलका यही धर्म था । इसीसे हमारे घरमें बहुतसी रीत हमारी चाचीके पितृ-कुलकी प्रचरित हुईं। मेरा नाम भी उसी ढंगका हुआ। हमारे पिता नौ वर्षके थे, तब निज पितासे वियुक्त हुए थे। फिर थोड़ ही कालमें उनकी माता भी वैकुण्ठ गईं। अतः हमको यह लिखनेका गौरव है कि हमारी चाचीक हम भी वात्सल्य-पात्र थे, हमारे पिता भी। यह महात्मा वाल्यावस्था में पिता-माताके वियोगसे घरकी निर्धनताके कारण जगत-चिन्तामें उसी समय फंस गये, जिस समय खेल कूदके दिन होते हैं। विजयग्रामसे डेढ़ कोसपर मवैया गाँव है। वहाँके पण्डित दयानिधि बाबा रहते थे, उनसे पढ़ने लगे। वर्ष दिन पढ़ा, फिर एक पेड़परसे गिरे, पाव टूटा नहीं, पर लड़खड़ाने लगा। इससे कई महीने पड़े रहे, फिर कानपुर चलं. आये। यहां श्रीशिवप्रसादजी अवस्थी और श्रीरेवतीरामजी त्रिपाठी (प्रयागनारायणजीके पिता) ने उनपर बड़ी कृपा-दृष्टि रक्खी। कुछ दिन पीछे अवधके बादशाह श्री गाजीउद्दीन हैदरके दारोगा जनाब आजम अलीखां साहबके दीवान श्रीमहाराज फतेहचन्दजीके यहाँ नौकर हुए और अवधप्रान्तके इब्राहीमपुर नामक गांवमें काशीरामके वाजपेयी-वंशमें विवाह किया। हमारी माता श्रीमुक्ताप्रसादजी वाजपेयीकी कन्या थीं। यह व्याह और यह नौकरी इन्हें ऐसी फलीभूत हुई कि *.... "

  • 'ब्राह्मण, पत्रके- खण्ड ५ वेंकी दूसरी, तीसरी और ५ वीं संख्यामें पण्डिन प्रतापनारायण मिश्रजी द्वारा लिखित अपने चरित्रका इतना ही अंश प्रकाशित हुआ था।