गुप्त-निबन्धावली चि? और खत करके इधर-उधर निकल गये थे। कुछ देर इसी प्रकार शर्माजीका शरीर खटियापर था और खयाल दूसरी दुनियामें। ___ अचानक एक सुरीली गानेकी आवाजने चौंका दिया। कन-रसिया शिवशम्भु खटियापर उठ बैठे । कान लगाकर सुनने लगे। कानोंमें यह मधुर गीत बार-बार अमृत ढालने लगा- चलो-चलो आज, खेलं होली कन्हैया घर । ___ कमरेसे निकल कर बरामदेमें खड़े हुए। मालूम हुआ कि पड़ोसमें किसी अमीरके यहाँ गाने-बजानेकी महफिल हो रही है। कोई सुरीली लयसे उक्त होली गा रहा है। साथही देखा बादल घिरे हुए हैं, बिजली चमक रही है, रिमझिम झड़ी लगी हुई है। वसन्तमें सावन देखकर अकल जरा चक्कर में पड़ी। विचारने लगे कि गानेवालेको मलार गाना चाहिये था, न कि होली। साथही खयाल आया कि फागुन सुदी है, वसन्तके विकाशका समय है, वह होली क्यों न गावे ? इसमें तो गानेवाले- की नहीं, विधिकी भूल है, जिसने वसन्तमें सावन बना दिया है। कहां तो चान्दनी छिटकी होती, निर्मल वायु बहती, कोयलकी कूक सुनाई देती । कहाँ भादोंकी-सी अन्धियारी है, वर्षाकी झड़ी लगी हुई है ! ओह ! कैसा मृतु विपर्यय है। ___ इस विचारको छोड़कर गीतके अर्थका विचार जीमें आया। होली खिलया कहते हैं कि चलो आज कन्हैयाके घर होली खेलेंगे। कन्हैया कौन ? ब्रजके राजकुमार और खेलनेवाले कौन ? उनकी प्रजा- ग्वाल- बाल। इस विचारने शिवशम्भु शर्माको और भी चौंका दिया कि एं! क्या भारतमें ऐसा समय भी था, जब प्रजाके लोग राजाके घर जाकर होली खेलते थे और राजा-प्रजा मिलकर आनन्द मनाते थे! क्या इसी भारतमें राजा लोग प्रजाके आनन्दको किसी समय अपना आनन्द समझते थे ? अच्छा यदि आज शिवशंभु शर्मा अपने मित्रवर्ग सहित [ २०४ ]
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