गुप्त-निबन्धावली चिट्ठे और खत जगह स्वागत हुआ। बम्बईमें स्वागत हुआ। कलकत्तमें कई बार गजट हुआ। रेलसे उतरेते और राजसिंहासनपर बैठते समय दो बार सलामी- की तोपं सर हुई। कितनेही राजा, नवाब, बेगम आपके दर्शनार्थ बम्बई पहुँचे । बाजे बजते रहे, फौज सलामी देती रहीं। ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि होनेकी शिवशम्भुके पास नहीं है। तथापि वह इस देशकी प्रजाका यहांके चिथड़ा-पोश कङ्गालोंका प्रतिनिधि होनेका दावा रखता है । क्योंकि उसने इस भूमिमें जन्म लिया है। उसका शरीर भारतकी मट्टीसे बना है और उसी मट्टीमें अपने शरीरकी मट्टीको एक दिन मिला देनेका इरादा रखता है। बचपनमें इसी देशको धूलमें लोट कर बड़ा हुआ, इसी भूमिके अन्न-जलसे उसकी प्राणरक्षा होती है। इसी भूमिसे कुछ आनन्द हासिल करनेको उसे भंगकी चन्द पत्तियां मिल जाती हैं। गांवमें उसका कोई झोंपड़ा नहीं है। जंगलमें खेत नहीं है । एक पत्तीपर भी उसका अधिकार नहीं है। पर इस भूमिको छोड़कर उसका संसारमें कहीं ठिकाना भी नहीं है। इस भूमिपर उसका जरा स्वत्व न होनेपर भी इसे वह अपनी समझता है। शिवशम्भुको कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसारमें एकदम अनजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता। जाननेकी चीज शिवशम्भुके पास कुछ नहीं है। उमके कोई उपाधि नहीं, राजदरबारमें उसकी पूछ नहीं। हाकिमोंसे हाथ मिलानेकी उसकी हैसियत नहीं, उनकी हामें हां मिलानेकी उसे ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमण्डी ब्राह्मण है। हे राजप्रतिनिधि ! क्या उसकी दो चार बात सुनियेगा ? ___ आपने बम्बईमें कहा है कि भारतभूमिको मैं किस्सा-कहानीकी भूमि नहीं, कर्तव्यभूमि समझता हूं। उसी कर्तव्यके पालनके लिये आपको ऐसे कठिन समयमें भी दूसरी बार भारतमें आना पड़ा ! माई लार्ड ! इस [ १८८ ]
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