गुप्त-निबन्धावली चिट्ट और खत वह चाहें तो फिर हाथियोंका एक बड़ा भारी जुलूस निकलवा सकते हैं। पर उसकी वैसी कुछ जरूरत नहीं जान पड़ती। क्योंकि जो जुलूस वह दिल्लीमें निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊँचे हाथीपर बैठ चुके हैं, उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथिवीम नहीं तो भारतवर्षमं तो और नहीं है। इसीसे फिर किसी हाथीपर बैठनेका श्रीमान्को और क्या चाव हो सकता है ? उससे ऊंचा हाथी और नहीं है। ऐरावतका केवल नाम है, देखा किसीने नहीं है। मेमथकी हड्डियां किसी किसी अजायबखानेमें उसी भांति आश्चर्यकी दृष्टिसे देखी जाती हैं. जैसे श्री- मानके स्वदेशके अजायबखानेमें कोई छोटा मोटा हाथी। बहुत लोग कह सकते हैं कि हाथीकी छोटाई बड़ाई पर बात नहीं, जुलूस निकले तो फिर भी निकल सकता है। दिल्ली नहीं तो कहीं और सही। क्योंकि दिल्लीमें आतशवाजी खूब चल चुकी थी, कलकत्तमें फिर चलाई गई। दिल्लीमें हाथियोंकी सवारी हो चुकनेपर भी कलकत्तमें रोशनी और घोडागाड़ीका तार जमा था। कुछ लोग कहते हैं कि जिस कामको लार्ड कर्जन पकड़ते हैं, पूरा करके छोडते हैं। दिल्ली दरबारमें कुछ बातोंकी कसर रह गयी थी। उदयपुरके महाराणा न तो हाथियोंके जुलूसमें साथ चल सके न दरबारमें हाजिर होकर सलामी देनेका मौका उनको मिला। इसी प्रकार बड़ोदानरेश हाथियोंके जुलूसमें शामिल न थे । वह दरबारमें भी आये तो बड़ी सीधी सादी पोशाकमें। इतनी सीधी सादीमें जित- नीसे आज कलकत्तमें फिरते हैं। वह ऐसा तुमतराक और ठाठ-बाठका समय था कि स्वयं श्रीमान् वैसरायको पतलून तक कारचोबीकी पहनना और राजा महाराजोंको काठकी तथा ड्यूक आफ कनाटको चांदीकी कुरसीपर बिठाकर स्वयं सोनेके सिंहासनपर बैठाना पड़ा था। उस मौकेपर बड़ौदा नरेशका इतनी सफाई और सादगीसे निकल जाना एक नई आन था। इसके सिवा उन्होंने झुकके सलाम नहीं किया था, बड़ी [ १८४ ]
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