पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१९

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गुप्त-निबन्धावली चरित-चर्चा समझमें आजायेंगी। जिस गुणमें वह कितनीही बार हरिश्चन्द्रके बराबर हो जाते थे, वह उनकी कवित्वशक्ति और सुन्दर भाषा लिखनेकी शैली था। हिन्दी गद्य और पद्यके लिखनेमें हरिश्चन्द्र जैसे तेज, तीखे और बेधड़क थे, प्रतापनारायण भी वैसेही थे। दूसरे लोग बहुत सोच-सोच कर और बड़ी चेष्टासे जो खूबियां अपने गद्य और पद्यमें पैदा करते थे, वह प्रतापनारायण मिश्रको सामने पड़ी मिल जाती थीं। इम लेखके लेखकका और उनका कोई डेढ़ साल तक साथ रहा है। रहना, सहना, उठना, बैठना, लिखना, पढ़ना, सब एक साथ होता था। इससे उनके स्वभाव और व्यवहारकी एक-एक बात मूर्तिमान सम्मुख दिखाई देती है। वह बात करते करते कविता करते थे, चलते-चलते गीत बना डालते थे। सीधी-सीधी बातोंमें दिल्लगी पैदाकर देते थे। तबसे कितनेही विद्वानों, पण्डितों, कवियोंसे मेल-जोल हुआ है, बातें हुई हैं और कितनोहीमें उनका-सा एक आध गुण भी देखने में आया है। पर उतने गुणोंसे युक्त, और हिन्दी साहित्य-सेवी देखनेमें न आया। इस लेखकपर मिश्रजीकी बड़ी कृपा थी और यह भी उनपर बहुत भक्ति रखता था। इससे आज ग्यारह वर्ष तक इनके विषयमें कुछ न लिखा जाना बहुतोंके जीमें यह विचार उत्पन्न करेगा कि इतने दिन तक इनकी जीवनी क्यों न लिखी गई ? इसका कारण यह है कि प्रतापकी जीवनी लिखनेके एक और सज्जन बड़े हकदार थे। वह स्वर्गीय पाण्डे प्रभुदयाल थे, जो प्रतापजीके प्रिय शिष्य और इस लेखकके साथी थे । जब-जब लिखनेका इरादा किया गया, पाण्डेजीने यही कहा कि अपने गरुकी जीवनी हम आप लिखगे। स्वगीय महाराजकुमार बाबू रामदीनसिंहजी भी पण्डित प्रतापनारायणजी पर बड़ी भक्ति रखते थे। उन्होंने जीवनी लिखनेका सब सामान पाण्डेजीको सौंप दिया था। दुःखकी बात है कि पाण्डेजी उनकी जीवनी न लिखने पाये और