पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१५७

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गुप्त-निबन्धावली राष्ट्र-भाषा और लिपि और सेनाओंकी सजावटका वर्णन है, उससे भी ग्रन्थकत्ताकी योग्यता प्रगट होती है । सतियोंके सती होनेका वर्णन और भी सुन्दर है । सारांश यह कि मुहम्मद कवि और उसकी पोथी दोनोही अपने-अपने ढङ्गमें बेजोड़ हैं। हिन्दी-भाषामें फारसी शब्दोंके मिलते जानेके विपयमें मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब आजादने अपनी किताब " आवेहयात' में एक कहानी लिखी है । हुमायं बादशाहने गुजरात पर चढ़ाई की तो उस समय सुलतान बहादुर वहांका बादशाह था। वह जांपानेरके किलेमें रहता था। जब किला घेरा गया तो सुलतान बहादुरका बहुत विश्वासी मुसाहिब रूमीखां मीर आतश हुमायू से मिल गया। इससे किला, सारे खजाने और उत्तम चीजों सहित हुमाय के हाथ आगया। सुलतान वहादुरका एक प्यारा और ग्ध बोलनेवाला तोता भी जो सदा सोनेके पिंजरेमें रखा जाता था लूटमें हुमायं के हाथ लगा। जब वह तोता दरबार में लाया गया तो उसने सामने रूमीखांको देवा । पहचानते ही तोता बोला – “फिट पापी रूमीखां नमकहराम" सबको सुनकर आश्चर्य हुआ । हुमायं ने फारसीमें कहा ...--"रूमीखां, क्या करू ? यह जानवर है, नहीं तो इसकी जिह्वा निकलवा लेता।” रूमीखांने लजाकर सिर नीचा कर लिया। इस नकलसे यह स्पष्ट होता है कि फारसी शब्द हिन्दीमें इतने मिलते जाते थे कि जानवर भी उनको सीख लेते थे। तातेके मुंहसे नमकहराम शब्द निकलनेसे स्पष्ट है कि उस समय वह हिन्दीमें मिल गया था ।* _* हिन्दी भाषा-विषयक अपने प्रस्तावित उपादेय ग्रन्थका इतना ही अंश गुप्तजी लिख सके। अपने विचारानुसार उसके विशद विवेचनात्मक अवतरणिका-भागको भी पूर्ण करनेका अवसर उन्हें नहीं मिला। देहावसानके एक वर्ष बाद सन् १९०८ ई० में उनकी पहली वार्षिक स्मृति-सभा कलकत्ता हाईकोर्ट के माननीय जष्टिस सारदाचरण मित्र महोदयकी अध्यक्षतामें हुई थी। उस अवसरपर इस अंशको [ १४० ]