गुप्त-निबन्धावली राष्ट्र-भाषा और लिपि बड़े गँवारी ढङ्गसे जारी था या कोई एक-आध गुम नाम बेढङ्गी पोथीमें दिखाई देता था। पचास सालसे अधिक हिन्दीकी यही दशा रही। उसका नाम- निशान मिटनेका समय आगया। उसके साथही साथ देवनागरी अक्षरों का प्रचार एकदम उठ चला था। देवनागरी अक्षरों में एक छोटी मोटी चिट्ठी भी शुद्ध लिखना लोग भूल चले थे । उर्दू का जोर बहुत बढ़ गया था। अचानक समयने पलटा खाया। कुछ फारसी-अंग्रजी पढ़ हुए हिन्दू सज्जनों के हृदयमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि फारसी अक्षरों- का चाहे कितनाही प्रचार हो जाय और सरकारी आफिसों में भी उनका कैसाही आदर बढ़ जाय, सर्वसाधारणमें फैलनेके योग्य देवनागरी अक्षर ही हैं। स्वर्गीय राजा शिवप्रसादकी चेपासे काशीसे बनारस अखबार निकाला उसकी भापा उर्दू और अक्षर देवनागरी थे। राजा शिव- प्रसादजी द्वारा देवनागरी अक्षरों का और भी बहुत कुछ प्रचार हुआ। पीछे काशीवालों ने हिन्दी भाषाके सुधारकी ओर भी ध्यान दिया और "सुधाकर-पत्र" निकाला। पर वह चेष्टा भी विफल हुई । अन्तको आगरा- निवासी स्वर्गीय राजा लक्ष्मणसिंहजीने शकुन्तलाका हिन्दी अनुवाद किया और अच्छी हिन्दी लिखनेवालोंको फिरसे एक मार्ग दिखाया। यद्यपि उसका शुद्ध अनुवाद २५ साल पीछे सन् १८८८ ई. में प्रकाशित हुआ जब कि हिन्दीकी चर्चा बहुत कुछ फैल चुकी थी-तथापि राजा शिवप्रसादके गुटके में मिल जानेसे उसके पहले अनुवादका बहुत प्रचार हो चुका था। सन ___ *इसके पहले कलकत्तेसे ३० मई सन् १८२६ को 'उदन्तमार्तण्ड' नामक साप्ताहिक हिन्दीपत्र प्रकाशित हो चुका था। उसके सम्पादक और प्रकाशक कानपुर निवासी पं० युगलकिशोर मिश्र थे। वे यहाँ सदर दीवानो अदालत में 'प्रोसिडिंगस रीडर' थे। - ( बांगला सामयिक पत्र,-श्रीव्रजेन्द्रनाथ बन्योपाध्याय-लिखित, पृष्ठ ७३ ) सम्पादक। । १०८ ।
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