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प्रतिशोध
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बेकस और ज्य़ादातर बेगुनाह नौजवानों को तबाह किया, उसे मैं सह न सकता था। उन दिनों अदालत में तमाशाइयों की बेइन्तहा भीड़ रहती थी। सभी अदालत से मिस्टर व्यास को कोसते हुए जाते थे। मैं तो मुकदमे की हकीक़त को जानता था, इसलिए मेरी अन्तरात्मा सिर्फ़ कोसने और गालियाँ देने से शान्त न हो सकती थी। मैं आपसे क्या कहूँ। मिस्टर व्यास ने आँख खोलकर समझ-बूझकर झूठ को सच साबित किया और कितने ही घरानो को बेचिराग़ कर दिया। आज कितनी माँऐं अपने बेटों के लिए खून के आँसू रो रही हैं, कितनी ही औरते रँडापे की आग में जल रही है। पुलिस कितनी ही ज्य़ादतियाँ करे, हम परवाह नहीं करते। पुलिस से हम इसके सिवा और कोई उम्मीद भी नहीं रखते। उसमें ज्य़ादातर जाहिल, शोहदे, लुच्चे भरे हुए है। सरकार ने इस महकमे को क़ायम ही इसलिए किया है कि वह रिआया को तंग करे। मगर वकीलों से हम इन्साफ़ की उम्मीद रखते है। हम उनकी इज्ज़त करते हैं। वे उच्चकोटि के पढ़े-लिखे, सजग लोग होते है। जब ऐसे आदमियों को हम पुलिस के हाथों की कठपुतली बना हुआ देखते हैं तो हमारे क्रोध की सीमा नहीं रहती। मैं मिस्टर व्यास का प्रशासक था, मगर जब मैंने उन्हें बेगुनाह मुलजिमों से जबरन् जुर्म का इकबाल कराते देखा तो मुझे उनसे नफ़रत हो गयी। गरीब मुलज़िम रात-रात भर उल्टे लटकाये जाते थे! सिर्फ़ इसलिए कि वह अपना जुर्म, जो उन्होने कभी नहीं किया, इकबाल कर लें! उनकी नाक में लाल मिर्च का धुआँ डाला जाता था! मिस्टर व्यास यह सारी ज्यादतियाँ सिर्फ अपनी आँखो से देखते ही नहीं थे, बल्कि उन्हीं के इशारे पर वह की जाती थीं।

माया के चेहरे की कठोरता जाती रही। उसकी जगह जायज़ गुस्से की गर्मी पैदा हुई। बोली—इसका आपके पास कोई सबूत है कि उन्होंने मुलजिमों पर ऐसी सख्तियाँ कीं?

'यह सारी बातें आम तौर पर मशहूर थी। लाहौर का बच्चा-बच्चा जानता है। मैंने खुद आँखों से देखी, इसके सिवा मैं और क्या सबूत दे सकता हूँ। उन बेचारों का बस इतना कसूर था कि वह हिन्दुस्तान के सच्चे दोस्त थे, अपना सारा बात प्रजा की शिक्षा और सेवा मे खर्च करते थे। खुद भूखे रहते थे, प्रजा पर पुलिस और हुक्काम की सख्तियाँ न होने देते थे, यही उनका गुनाह था और इसी गुनाह की सज़ा दिलाने में मिस्टर व्यास पुलिस के दाहिने हाथ बने हए थे!'