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प्रतिशोष
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'आप मुझे बनाते है, अच्छा साहब बना लीजिए!'

'नही मै बनाता नही, बिलकुल सच कहता हूँ। किस किस चीज की तारीफ़ करूँ? चाहता हूँ कि कोई ऐब निकालूं लेकिन सूझता ही नही। अबकी मै अपने दोस्तो की दावत करूंगा तो आपको एक दिन तकलीफ दूंगा।'

'हाँ शोक से कीजिए, मै हाजिर हूँ।'

खाते-खाते दस बज गये। तिलोत्तमा सो गयी। गली में भी सन्नाटा हो गया। ईश्वरदास चलने को तैयार हुआ, तो माया बोली—क्या आप चले जायगे? क्यो न आज यही सो रहिए? मुझे कुछ डर लग रहा है। आप बाहर के कमरे मे सो रहिएगा, मै अन्दर ऑगन में सो रहूंगी।

ईश्वरदास ने क्षण भर सोचकर कहा—अच्छी बात है। आपने पहले कभी न कहा कि आपको इस घर मे डर लगता है वर्ना मै किसी भरोसे को बुड्ढी औरत को रात को सोने के लिए ठीक कर देता।

ईश्वरदास ने तो कमरे में आसन जमाया, माया अन्दर खाना खाने गयी। लेकिन आज उसके गले के नीचे एक कौर भी न उतर सका। उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। दिल पर एक डर-सा छाया हुआ था। ईश्वरदास कहीं जाग पड़ा तो? उसे उस वक्त कितनी शर्मिन्दगी होगी!

माया ने कटार को खूब तेज कर रखा था। आज दिन भर उसने उसे हाथ मे लेकर अभ्यास किया। वह इस तरह वार करेगी कि खाली ही न जाय। अगर ईश्वरदास जाग ही पड़ा तो भी जानलेवा घाद लगेगा।

जब आधी रात हो गयी और ईश्वरदास के खर्राटो की आवाजे कानो मे आने लगी तो माया कटार लेकर उठी पर उसका सारा शरीर कॉप रहा था। भय और सकल्प, आकर्षण और घृणा एक साथ कभी उसे एक कदम आगे बढ़ा देती कभी पीछे हटा देती। ऐसा मालूम होता था कि जैसे सारा मकान, सारा आसमान चक्कर खा रहा है। कमरे की हर एक चीज़ घूमती हुई नजर आ रही थी। मगर एक क्षण मे यह बेचैनी दूर हो गयी और दिल पर डर छा गया। वह दबे पॉव ईश्वरदास के कमरे तक आयी, फिर उसके कदम वही जम गये। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। आह, मै कितनी कमजोर हूँ। जिस आदमी ने मेरा सर्वनाश कर दिया, मेरी हरी-भरी खेती उजाड़ दी, मेरे लहलहाते हुए उपवन को वीरान कर दिया, मुझे हमेशा के लिए आग के जलते हुए कुडो में डाल दिया, उससे मै खून का बदला भी नहीं ले सकती! वह मेरी ही बहने थी, जो तलदार और बन्दूक