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गुप्त धन
 

केशव का ध्यान इस तकलीफ की तरफ न गया था। बोला—जरूर तकलीफ़ हो रही होगी। बेचारे प्यास के मारे तडपते होगे। ऊपर छाया भी तो कोई नही।

आखिर यही फैसला हुआ कि घोसले के ऊपर कपडे की छत बना देनी चाहिए। पानी की प्याली और थोडे से चावल रख देने का प्रस्ताव भी स्वीकृत हो गया।

दोनों बच्चे बड़े चाव से काम करने लगे। श्यामा माँ की आँख बचाकर मटके से चावल निकाल लायी। केशव ने पत्थर की प्याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ करके उसमे पानी भरा।

अब चाँदनी के लिए कपडा कहाँ से आये? फिर ऊपर बगैर छड़ियो के कपडा ठहरेगा कैसे और छडियों खडी होंगी कैसे?

केशव बड़ी देर तक इसी उधेड-बुन मे रहा। आखिरकार उसने यह मुश्किल भी हल कर दी। श्यामा से बोला—जाकर कूडा फेकनेवाली टोकरी उठा लाओ। अम्मा जी को मत दिखाना।

श्यामा—वह तो बीच से फटी हुई है। उसमे से धूप न जायगी? केशव ने झुंझलाकर कहा—तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बन्द करने की कोई हिकमत निकालूंगा।

श्यामा दौडकर टोकरी उठा लायी। केशव ने उसके सूराख में थोडा-सा कागज ठूंस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला—देख, ऐसे ही धोसले पर उसकी आड कर दूंगा। तब कैसे धूप जायगी?

श्यामा ने दिल में सोचा, भइया कितने चालाक है!

गर्मी के दिन थे। बाबू जी दफ्तर गये हुए थे। अम्माँ दोनो बच्चो को कमरे में सुलाकर खुद सो गयी थी। लेकिन बच्चो की ऑखो मे आज नीद कहाँ? अम्माँ जी को बहलाने के लिए दोनों दम रोके आँखे बन्द किये मौके का इन्तजार कर रहे थे। ज्योही मालूम हुआ कि अम्मा जी अच्छी तरह से सो गयी, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से दरवाजे की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आये। अण्डों की हिफाजत' की तैयारियाँ होने लगी। केशव' कमरे से एक स्टूल उठा लाया, लेकिन जब उससे काम न चला तो नहाने की चौकी लाकर स्टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्टूल पर चढ़ा।