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गुप्त धन
 

ही मेरे धीरज का प्याला छलक उठा और इन तीन दिनो में भी दिल की जो हालत थी वह बयान से बाहर है। शीरीं, यानी मीठे गुड, की कोठरी की तरफ़ से बार-बार गुजरता और अधीर नेत्रो से देखता और हाथ मलकर रह जाता। कई बार ताले को खटखटाया, खींचा, झटके दिये, मगर जालिम जरा भी न हुमसा। कई बार जाकर उस सधि की जांच-पड़ताल की, उसमें झांककर देखा, एक लकड़ी से उसकी गहराई का अन्दाजा लगाने की कोशिश की मगर उसकी तह न मिली। तबीयत खोयी हुई-सी रहती, न खाने-पीने मे कुछ मजा था, न खेलने-कूदने मे। वासना बार-बार युक्तियों के ज़ोर से दिल को कायल करने की कोशिश करती। आखिर गुड़ और किस मर्ज की दवा है! मैं उसे फेक तो देता नहीं, खाता ही तो हूँ, क्या आज खाया और क्या एक महीने बाद खाया, इसमें क्या फर्क है! अम्माँ ने मनाही की है बेशक, लेकिन उन्हें मुझे एक उचित काम से अलग रखने का क्या हक है? अगर वह आज कहे खेलने मत जाओ या पेड़ पर मत चढ़ो या तालाब में तैरने मत जाओ, या चिड़ियों के लिए कम्पा मत लगाओ, तितलियाँ मत पकड़ो, तो क्या मैं माने लेता हूँ? आखिर मेरे भी कुछ अधिकार है या नहीं! तो फिर इस एक मामले में क्यों अम्मॉ की मनाही पर अपनी इच्छाओं का बलिदान कर दूं? आखिर चौथे दिन वासना की जीत हुई। मैनें तड़के उठकर एक कुदाल लेकर दीवार खोदना शुरू किया। सधि थी ही, खोदने में ज्यादा देर न लगी, आध घण्टे के घनघोर परिश्रम के बाद दीवार से कोई गज भर लम्बा और तीन इच मोटा चप्पड टूटकर नीचे गिर पड़ा और सघि की तह मे वह सफलता की कुंजी पड़ी हुई थी, जैसे समुन्दर की तह में मोती की सीप पड़ी हो! मैंने झटपट उसे निकाला और फ़ौरन दरवाजा खोला, मटके से गुड निकालकर हॉडी में भरा और दरवाजा बन्द कर दिया। मटके मे इस लूट-पाट से स्पष्ट कमी पैदा हो गयी थी। हजार तरकीबे आजमाने पर भी उसका गड्ढा न भरा। मगर अबकी बार मैने इस चटोरेपन का अम्माँ की वापसी तक खात्मा कर देने के लिए कुजी को कुएँ में डाल दिया। किस्सा लम्बा है, मैने कैसे ताला तोड़ा, कैसे गुड निकाला और मटका खाली हो जाने पर कैसे उसे फोडा और उसके टुकड़े रात को कुएं में फेके और अम्माँ आयीं तो मैंने कैसे रो-रोकर उनसे मटके के चोरी जाने की कहानी कही, यह बयान करने लगा तो यह घटना जो मैं आज लिखने बैठा हूँ, अधूरी रह जायगी।

चुनांचे इस वक्त गुड की उस मीठी प्यारी खुशबू ने मुझे बेसुध बना दिया मगर मैं सब करके आगे बढ़ा।