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होली को छुट्टी
३३
 

जीभ दिल जैसे शहजोर पहलवान को नचा रही थी, जैसे मदारी बन्दर को नचाये— उसको, जो आकाश में उडता है और सातवे आसमान के मसूबे बांधता है और अपने जोम में फरऊन को भी कुछ नहीं समझता। बार-बार इरादा करता, दिन भर मे पाँच पिंडियों से ज्यादा न खाऊँ, लेकिन यह इरादा शराबियो की तोबा की तरह घटे-दो-घटे से ज्यादा न टिकता। अपने को कोसता, धिक्कारता—गुड़ तो खा रहे हो मगर बरसात में सारा शरीर सड़ जायगा, गवक का मलहम लगाये धूमोगे, कोई तुम्हारे पास बैठना भी न पसन्द करेगा ! कसमें खाता, विद्या की, माँ की, स्वर्गीय पिता की, गऊ की, ईश्वर की-मगर उनका भी वही हाल होता। दूसरा हप्ता खत्म होते-होते हॉडी भी खत्म हो गयी। उस दिन मैने बड़े भक्ति- भाव से ईश्वर से प्रार्थना की—भगवान, यह मेरा चंचल लोभी मन मुझे परेशान कर रहा है, मुझे शक्ति दो कि उसको वश मे रख सकूँ। मुझे अष्टधात की लगाम दो जो उसके मुंह मे डाल दूं! यह अभागा मुझे अम्मा से पिटवाने और घुडकियाँ खिलवाने पर तुला हुआ है, तुम्ही मेरी रक्षा करो तो बच सकता हूँ। भक्ति की विह्वलनी के मारे मेरी आँखों से दो-चार बूंदे आँसुओ की भी गिरी लेकिन ईश्वर ने भी इसकी सुनवायी न की और गुड की बुभुक्षा मुझ पर छायी रही, यहाँ तक कि दूसरी हॉडी का मसिया पढने की नौबत आ पहुंची।

सयोग से उन्हीं दिनों तीन दिन की छुट्टी हुई और मैं अम्मा से मिलने ननिहाल गया। अम्माँ ने पूछा—गुड का मटका देखा है? चीटे तो नही लगे? सीलन तो नहीं पहुँची? मैंने मटके को देखने की भी कसम खाकर अपनी ईमानदारी का सबूत दिया। अम्माँ ने मुझे गर्व के नेत्रो से देखा और मेरे आज्ञा-पालन के पुरस्कार स्वरूप मुझे एक हॉडी निकाल लेने की इजाजत दे दी, हॉ, ताकीद भी कर दी कि मटके का मुँह अच्छी तरह बन्द कर देना। अब तो वहाँ मुझे एक-एक दिन एक-एक युग मालूम होने लगा। चौथे दिन घर आते ही मैंने पहला काम जो किया वह मटका खोलकर हॉडी भर गुड निकालना था। एकबारगी पाँच पिंडिया उड़ा गया। फिर वही गुडबाजी शुरू हुई। अब क्या गम है, अम्माँ की इजाजत मिल गयी थी। सैयाँ भये कोतवाल, और आठ दिन मे हॉडी गायब! आखिर मैने अपने दिल की कमजोरी से मजबूर होकर मटके की कोठरी के दरवाजे पर ताला डाल दिया और उसकी कुजी दीवार को एक मोटी सधि में डाल दी। अब देखें तुम कैसे गुड़ खाते हो। इस सधि में से कुजी निकालने का मतलब यह था कि तीन हाथ दीवार खोद डाली जाय और यह हिम्मत मुझमें न थी। मगर तीन दिन में