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गुप्त धन
 

मै अभी ऊपर ही था कि बकरियो और भेडों का एक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियो पर पिल पडा । मैं ऊपर चीख से रहा हूँ मगर कौन सुनता है। चरवाहे का कही पता नहीं। कही दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊँगा तो गालियाँ पड़ेगी। झल्लाकर नीचे उतरने लगा। एक-एक पल मे पत्तियाँ गायब होती जाती थी। उतरकर एक-एक की टॉग तोडगा। यकायक पॉव फिसला और मैं दस फिट की ऊंचाई से नीचे आ रहा। कमर मै ऐसी चोट आयी कि पाँच मिनट तक आँखों तले अँधेरा छा गया। खैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता। बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियाँ भागी और थोड़ी-सी पत्तियाँ बच रही। जब जरा होश ठिकाने हुए तो मैने उन पत्तियो को जमा करके एक गट्ठा बनाया और मजदूरो की तरह उसे क पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला। रास्ते मे कोई दुर्घटना न हुई। जब मकान कोई चार फर्लाग रह गया और मैने कदम तेज किये कि कही कोई देख न ले तो वह काछी सामने से आता दिखायी दिया। कुछ न पूछो उस वक्त मेरी क्या हालत हुई। रास्ते के दोनों तरफ खेतो की ऊँची मेडे थी जिनके ऊपर नागफनी के कॉटे लगे हुए थे। अगर रस्ते रस्ते जाता हूँ तो वह जालिम मेरे बगल से होकर निकलेगा और भगवान जाने क्या सितम ढाये। कही मुडने का रास्ता नहीं और बह मरदूद जमदूत की तरह चला आता था। मैने धोती ऊपर सरकायी, चाल बदल ली और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है। तले की सॉस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूखार शेर हो। बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान, तू ही आफत के मारे हुओ का मददगार है, इस मरदूद बन्द कर दे। एक क्षण के लिए, इसकी आँखों की रोशनी गायब कर दे. .आह वह यत्रणा का क्षण जब मै उसके बरावर एक गज के फासले से निकला। एक-एक कदम तलवार की धार पर पड़ रहा था कि शैतानी आवाज कानो में आयी-कौन है रे, कहाँ से पत्तियाँ तोडे लाता है।

मुझे मालूम हुआ, नीचे से जमीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट मे जा पहुँचा हूँ। रोएँ, बछियां बने हुए थे, दिमाग मे उबाल-सा आ रहा था,शरीर को लकवा-सा मार गया था, जवाब देने का होश न रहा। लेज़ी से दो-तीन कदम आगे बढ़ गया, मगर वह ऐच्छिक क्रिया थी, प्राण-रक्षा की सहज क्रिया थी।

कि एक जालिम हाथ गठे पर पड़ा और गढ़ा नीचे गिर पड़ा। फिर मुझे की जबान