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कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो
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भी साथ लिया वर्ना बच्चे को कौन संभालता। जब नौ बजे रात को घर लौटे और मै लालटेन लेकर बकरी लेने गया तो क्या देखता हूँ कि उसने रस्सी को दो-तीन पेडो में लपेटकर ऐसा उलझा डाला है कि सुलझना मुशकिल है। इतनी रस्सी भी न बची थी कि वह एक कदम भी चल सकती लाहिलविलाकूवत, जी मैं आया कि कम्बख्त को यही छोड दूं, मरती है तो मर जाय, अब इतनी रात को लालटेन की रोशनी से कौन रस्सी सुलझाने बैठे। लेकिन दिल न माना। पहले उसकी गर्दन से रस्सी खोली, फिर उसकी पेच-दर-पेच ऐठन छुडायी, एक घंटा लग गया। मारे सर्दी के हाथ ठिठुरे जाते थे और जी जल रहा था वह अलग। यह तरकीब और भी तकलीफदेह साबित हुई।

अब क्या करूँ कुछ अक्ल काम न करती थी। दूध का खयाल न होता तो किसी को मुफ्त दे देता। शाम होते ही चुडैल अपनी चीख-पुकार शुरू कर देगी और घर मे रहना मुशकिल हो जायगा, और आवाज भी कितनी कर्कश और मनहूस होती है। शास्त्रो मे लिखा भी है, जितनी दूर उसकी आवाज़ जाती है उतनी दूर देवता नहीं आते। स्वर्ग की बसनेवाली हस्तियां, जो अप्सराओ के गाने सुनने की आदी है, उसकी कर्कश आवाज से नफरत करे तो क्या ताज्जुब ! मुझ पर उसकी कर्णकटु पुकारो का ऐसा आतक सवार था कि दूसरे दिन दफ्तर से आते ही मै घर से निकल भागा। लेकिन एक मील निकल जाने पर भी ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज मेरा पीछा किये चली आती है। अपने इस चिडचिडेपन पर शर्म भी आ रही थी। जिसे एक बकरी रखने की भी सामर्थ्य न हो वह इतना नाजुक-दिमाग़ क्यों बने और फिर तुम सारी रात तो घर से बाहर रहोगे नही,आठ बजे पहुँचोगे तो क्या वह गीत तुम्हारा स्वागत न करेगा?

सहसा एक नीची शाखोवाला पेड देखकर मुझे बरबस उस पर चढ़ने की इच्छा हुई। सपाट तनो पर चढना मुशकिल होता है, यहाँ तो छ सात फुट की ऊँचाई पर शाखे फूट गयी थी। हरी-हरी पत्तियो से पेड लदा खडा था और पेड भी था गूलर का जिसकी पत्तियो से बकरियो को खास प्रेम है। मै इधर तीस साल से किसी रूख पर नहीं चढा। वह आदत जाती रही। इसलिए आसान चढाई के बावजूद मेरे पॉव कॉप रहे थे पर मैने हिम्मत न हारी और पत्तियों तोड-तोड नीचे गिराने लगा। यहाँ अकेले मे कौन मुझे देखता है कि पत्तियाँ तोड रहा हूँ। अभी अँधेरा हुआ जाता है। पत्तियो का एक गट्ठा बगल मे दवाऊँगा और घर जा पहुँचूँगा। अगर इतने पर भी बकरी ने कुछ ची-चपड की तो उसकी शामत ही आ जायगी।