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गुप्त धन
 


ठाकुर ने शिकायत के स्वर में कहा—अब भी तुझे मुझ पर विश्वास नहींआता?

'भौरे फूल का रस लेकर उड जाते है।'

'और पतंगे जलकर राख नही हो जाते?'

'पतियाऊँ कैसे?'

'मैंने तेरा कोई हुक्म टाला है?'

'तुम समझते होगे कि तुलिया को एक रंगीन साड़ी और दो-एक छोटे-मोटे गहने देकर फंसा लूंगा। मै ऐसी भोली नहीं हूँ।'

तुलिया ने ठाकुर के दिल की बात भॉप ली थी। ठाकुर हैरत मे आकर उसका मुंह ताकने लगा।

तुलिया ने फिर कहा—आदमी अपना घर छोडता है तो पहले कही बैठने का ठिकाना कर लेता है।

ठाकुर प्रसन्न होकर बोला—तो तू चलकर मेरे घर मे मालकिन बनकर रह। मै तुझसे कितनी बार कह चुका।

तुलिया ऑखे मटकाकर बोली—आज मालकिन बनकर रहूँ, कल लौडी बनकर भी न रहने पाऊँ, क्यों?

'तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मै तो तेरा गुलाम हूँ।'

'बचन देते हो?'

'हाँ, देता हूँ। एक बार नही, सौ बार, हज़ार बार।'

'फिर तो न जाओगे?'

'बचन देकर फिर जाना नामर्दो का काम है।'

'तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख दो।'

ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पॉच बीघे खेत, गहने-कपडे तो उसके चरणों पर चढ़ा देने को तैयार था, लेकिन आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाय, तो उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पडे। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूँ। उसकी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।