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गुप्त धन
 


लागत अति पहाड कर पानी।
बड़ दुख होत न जाइ बखानी॥

खाँ—तो यह इतने अंग्रेज वहाँ क्यों जाते है साहब? ये लोग अपने वक्त के लुकमान है। इनका कोई काम मसलहत से खाली नहीं होता। पहाड़ो की सैर से कोई फायदा न होता तो क्यो जाते, जरा यह तो सोचिए ।

व्यास—यही सोच-सोचकर तो हमारे रईस अपना सर्वनाश कर रहे है। उनकी देखा-देखी धन का नाश, धर्म का नाश, बल का नाश होता चला जाता है, फिर भी हमारी आँखे नहीं खुलती।

लाला—मेरे पिता जी एक बार किसी अंग्रेज के साथ पहाड़ पर गये। वहाँ से लौटे तो मुझे वसीयत की कि खबरदार कभी पहाड़ पर न जाना। आखिर कोई बात देखी होगी, जभी तो यह वसीयत की।

वाजिद—हुजूर, खॉ साहब जाते है जाने दीजिए, आपको मै जाने की सलाह न दूंगा। जरा सोचिए, कोसो की चढाई, फिर रास्ता इतना खतरनाक कि ख़ुदा की पनाह! जरा-सी पगडंडी और दोनों तरफ कोसो का खड्ड। नीचे देखा और थरथराकर आदमी गिर पड़ा और जो कही पत्थरो मे आग लग गयी, तो चलिए वारा-न्यारा हो गया। जल-भुन के कबाब हो गये।

खाँ—और जो लाखों आदमी पहाडों पर रहते है?

वाजिद—उनकी और बात है भाई साहब।

खाँ—और बात कैसी? क्या वे आदमी नही है?

वाजिद—लाखों आदमी दिनभर हल जोतते है, फावडे चलाते है, लकडी फाड़ते है, आप करेगे? है आपमे इतना दम? हुजूर उस चढाई पर चढ़ सकते हैं?

खाँ—क्यों नहीं टट्टुओं पर जायेंगे।

वाजिद—टट्टुओं पर छ. कोस की चढाई! होश की दवा कीजिए।

कुँअर—टेट्टू पर! भई हमसे न जाया जायगा। कही टट्टू भडके तो कही के न रहे।

लाला—गिरे तो हड्डियों तक न मिले!

व्यास—प्राण तक चूर-चूर हो जाय।

वाजिद—खुदावद, एक जरा-सी ऊँचाई पर से आदमी देखता है, तो कॉपने लगता है, न कि पहाड़ की चढ़ाई।

कुँअर—बहॉ सड़कों पर इधर-उधर ईट या पत्थर की मुंडेर नहीं बनी हुई है?