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गुप्त धन
 

स्त्री—कहाँ दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबडी न खाओ। लवण-भास्कर ले आऊँ?

मोटे०—हाय, दुष्टो ने मार डाला। उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई। मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल लिया।

स्त्री—तो यह कहो कि पिटकर आये हो। हाँ पिटे तो हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातों ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहाँ मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते थे।

मोटे०—हाय, हाय! रॉड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी। मेरा तो बुरा हाल है और तू कोस रही है। किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातो-रात लखनऊ से भाग जाना है। नहीं तो सबेरे प्राण न बचेंगे।

स्त्री—नहीं, अभी तुम्हारा पेट नही भरा। अभी कुछ दिन और यहाँ की हवा खाओ! कैसे मजे से लडके पढ़ाते थे, हॉ, नही तो वैद्य बनने की सूझी। बहुत अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे। रानी कहाँ थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्हारी रक्षा न की?

पण्डित—हाय, हाय, वह चुडैल तो भाग गयी। उसी के कारण ! क्या जानता था कि यह हाल होगा, नहीं तो उसकी चिकित्सा ही क्यो करता?

स्त्री—हो तुम तकदीर के खोटे। कैसी वैद्यकी चल गयी थी। मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यानाश मार दिया। आखिर फिर वही पढौनी करना पड़ी। हो तक़दीर के खोटे।

XXX

प्रातःकाल मोटेरामजी के द्वार पर ठेला खडा था और उस पर असबाब लद रहा था। मित्रो मे एक भी नजर न आता था। पण्डितजी पडे कराह रहे थे और स्त्री सामान लदबा रही थी।

—माधुरी, जनवरी १९२८