यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सैलानी बंदर
१३९
 

और यदि कोई आ जाता, तो मन्नू उसे अवश्य ही दो-चार कनेठियाँ और झापड़ लगाता था। उसके सर्वप्रिय होने का यह एक और कारण था। दिन को कभी-कभी बुधिया धूप मे लेट जाती, तो मन्नू उसके सिर की जुएँ निकालता और वह उसे गाना सुनाती। वह जहाँ कही जाती थी वहाँ मन्नू उसके पीछे-पीछे जाता था। माता और पुत्र मे भी इससे अधिक प्रेम न हो सकता था।

एक दिन मन्नू के जी मे आया कि चलकर कही फल खाना चाहिए। फल खाने को मिलते तो थे पर वृक्षों पर चढ़कर डालियों पर उचकने, कुछ खाने और कुछ गिराने में कुछ और ही मजा था। बन्दर विनोदशील होते ही हैं, और मन्नू में इसकी मात्रा कुछ अधिक थी भी। कभी पकड-धकड़ और मारपीट की नौबत न आयी थी। पेड़ों पर चढकर फल खाना उसको स्वाभाविक जान पड़ता था। यह न जानता था कि वहाँ प्राकृतिक वस्तुओं पर भी किसी न किसी की छाप लगी हुई है, जल, वायु और प्रकाश पर भी लोगो ने अधिकार जमा रक्खा है, फिर बाग-बगीचों का तो कहना ही क्या। दोपहर को जब जीवनदास तमाशा दिखाकर लौटा, तो मन्नू लबा हुआ। वह यों भी मुहल्ले मे चला जाया करता था, इसलिए किसी को सदेह न हुआ कि वह कही चला गया। उधर वह घूमता-घामता, खपरैलों पर उछलता-कूदता एक बगीचे मे जा पहुँचा। देखा तो फलो से पेड लदे हुए है। ऑवले, कटहल, लीची, आम, पपीते बगैरह लटकते देखकर उसका चित्त प्रसन्न हो गया। मानो वे वृक्ष उसे अपनी ओर बुला रहे थे कि खाओ, जहाँ तक खाया जाय, यहाँ किसी की रोक-टोक नहीं है। तुरत एक छलाँग मारकर वह चहारदीवारी पर चढ़ गया। दूसरी छलॉग में पेड़ो पर जा पहुॅचा। कुछ आम खाये, कुछ लीचियाँ खायीं। खुश हो-होकर गुठलियाॅ इधर-उधर फेकना शुरू किया। फिर सबसे ऊँची डाल पर जा पहुॅचा और डालियों को हिलाने लगा। पके आम ज़मीन पर बिछ गये। खड़खड़ाहट हुई तो माली दोपहर की नीद से चौका और मन्नू को देखते ही उसे पत्थरो से मारने लगा। पर या तो पत्थर उसके पास तक पहुँचते ही न थे या वह सिर और शरीर हिलाकर पत्थरो को बचा जाता था। बीच-बीच में बागवान को दाँत निकालकर डराता भी था। कभी मुँह बनाकर उसे काटने की धमकी भी देता था। माली बँदरघुडकियों से डरकर भागता था, और फिर पत्थर लेकर आ जाता था। यह कौतुक देखकर मुहल्ले के बालक जमा हो गये, और शोर मचाने लगे--