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गुप्त धन
 

खूब गहरी नींद सोया, सबेरा हुआ तो मुझे उस पंछी की आज़ादी का अनुभव हो रहा था जिसके पर खुल गये है। बड़े इत्मीनान से सिगरेट पिया, मुॅह-हाथ धोया, फिर अपना सामान ढग से रखने लगा। खाने के लिए किसी होटल की भी फिक्र थी, मगर उस हिम्मत तोडनेवाली बला पर फ़तेह पाकर मुझे जो खुशी हो रही थी, उसके मुकाबले में इन चिन्ताओं की कोई गिनती न थी। मुॅह-हाथ धोकर नीचे उतरा। आज की हवा में भी आज़ादी का नशा था। हर एक चीज मुस्कराती हुई मालूम होती थी। खुश-खुश एक दुकान पर जाकर पान खाये और जीने पर चढ़ ही रहा था कि देखा वह तम्बोलिन लपकी चली आ रही है। कुछ न पूछो, उस वक्त दिल पर क्या गुज़री। बस यही जी चाहता था कि अपना और उसका दोनों का सिर फोड़ लूँ। मुझे देखकर वह ऐसी खुश हुई जैसे कोई धोबी अपना खोया हुआ गया पा गया हो। और मेरी घबराहट का अन्दाज़ा बस उस गधे की दिमागी हालत से कर लो! उसने दूर ही से कहा--वाह बाबू जी, वाह, आप ऐसा भागे कि किसी को पता भी न लगा। उसी मुहल्ले में एक से एक अच्छे घर खाली है। मुझे क्या मालूम था कि आपको उस घर मे तकलीफ़ थी। नहीं तो मेरे पिछवाडे ही एक बड़े आराम का मकान था। अब मैं आपको यहाँ न रहने दूँगी। जिस तरह हो सकेगा, आपको उठा ले जाऊँगी। आप इस घर का क्या किराया देते है?

मैंने रोनी सूरत बना कर कहा--दस रुपये।

मैने सोचा था कि किराया इतना कम बताऊँ जिसमें यह दलील उसके हाथ से निकल जाय। इस घर का किराया बीस रुपये है, दस रुपये में तो शायद मरने को भी जगह न मिलेगी। मगर तम्बोलिन पर इस चकमे का कोई असर न हुआ। बोली--इस ज़रा-से घर के दस रुपये! आप आठ ही दीजियेगा और घर इससे अच्छा न हो तो जब भी जी चाहे छोड़ दीजिएगा। चलिए, मै उस घर की कुजी लेती आयी हूँ। इसी वक्त आपको दिखा दूँ।

मैने त्योरी चढ़ाते हुए कहा--आज ही तो इस घर में आया हूँ, आज ही छोड़ कैसे सकता हूँ। पेशगी किराया दे चुका हूँ।

तम्बोलिन ने बड़ी लुभावनी मुस्कराहट के साथ कहा--दस ही रुपये तो दिये हैं, आपके लिए दस रुपये कोन बड़ी बात यही समझ लीजिए कि आप न चले तो मैं उजड़ जाऊँगी। ऐसी अच्छी बोहनी वहाँ और किसी की नहीं है। आप नही चलेंगे तो मैं ही अपनी दुकान यहाँ उठा लाऊँगी।

मेरा दिल बैठ गया। यह अच्छी मुसीबत गले पड़ी। कहीं सचमुच चुड़़ै़ैल