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बोहनी
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दुकान से पान लेना छोड़ दूँ। जब मेरी बोहनी ही न होगी, तो मुझे उसकी बिक्री की क्या फिक्र होगी? दूसरे दिन हाथ-मुँह धोकर मैंने एक इलायची खा ली और अपने काम में लग गया। लेकिन मुश्किल से आध घण्टा बीता होगा, कि किसी की आहट मिली। ऑख ऊपर को उठाता हूँ तो तम्बोलिन गिलौरियाँ लिये सामने खड़ी मुस्करा रही है। मुझे इस वक्त उसका आना जी पर बहुत भारी गुज़रा लेकिन इतनी बेमुरौवती भी तो न हो सकती थी कि दुतकार दूँ। बोला--तुमने नाहक तकलीफ की, मैं तो आ ही रहा था।

तम्बोलिन ने मेरे हाथ मे गिलौरियाॅ रखकर कहा--आपको देर हुई तो मैंने कहा मै ही चलकर बोहनी कर आऊँ। दुकान पर गाहक खड़े है, मगर किसी की बोहनी नहीं की।

क्या करता, गिलौरियाॅ खायी और बोहनी करायी। जिस चिन्ता से मुक्ति पाना चाहता था, वह फिर फन्दे की तरह गर्दन पर चिमटी हुई थी। मैंने सोचा था, मेरे दोस्त दो-चार दिन तक उसके यहाँ पान खायेगे तो आप ही उससे हिल जायेगे और मेरी सिफ़ारिश की जरूरत न रहेगी। मगर तम्बोलिन शायद पान के साथ अपने रूप का भी कुछ मील करती थी इसलिए एक बार जो उसकी दुकान पर गया, दुबारा न गया। दो-एक रसिक नौजवान अभी तक आते थे, वह लोग एक ही हँसी में पान और रूप-दर्शन दोनो का आनन्द उठाकर चलते बने थे। आज मुझे अपनी साख बनाये रखने के लिए फिर पूरे डेढ़ रुपये खर्च करने पड़े, बधिया बैठ गयी।

दूसरे दिन मैंने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया, मगर जब तम्बोलिन ने नीचे से चीखना, चिल्लाना और खटखटाना शुरू किया तो मजबूरन दरवाज़ा खोलना पड़ा। ऑखे मलता हुभा नीचे गया, जिससे मालूम हो कि आज नींद आ गयी थी। फिर बोहनी करानी पड़ी। और फिर वही बला सर पर सवार हुई। शाम तक दो रुपये का सफाया हो गया। आखिर इस विपत्ति से छुटकारा पाने का यही एक उपाय रह गया कि वह घर छोड़ दूँ।

मैने वहाँ से दो मील पर एक अनजान मुहल्ले में एक मकान ठीक किया और रातों-रात असबाब उठवाकर वहाँ जा पहुँचा। वह घर छोड़कर मैं जितना खुश हुआ शायद कैदी जेलखाने से भी निकलकर उतना खुश न होता होगा। रात को