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गुप्त धन
 

पैसे दुकान में आये थे। इसके पहले दो दिन पडितजी की बोहनी हुई थी, दोपहर तक ढाई रुपये आ गये थे। कभी किसी का हाथ अच्छा नही होता बाबू जी!

मुझे गोली-सी लगी। मुझे अपने भाग्यशाली होने का कोई दावा नहीं है, मुझसे ज्यादा अभागे दुनिया मे कम होंगे। इस साम्राज्य का अगर मै बादशाह नही, तो कोई ऊँचा मसबदार जरूर हूँ। लेकिन यह मैं कभी गवारा नहीं कर सकता कि नहूसत का दाग बर्दाश्त कर लू। कोई मुझसे बोहनी न कराये, लोग सुबह को मेरा मुॅह देखना अपशकुन समझे, यह तो घोर कलक की बात है।

मैंने पान तो ले लिया लेकिन दिल में पक्का इरादा कर लिया कि इस नहूसत के दाग को मिटाकर ही छोड़ूँगा। अभी अपने कमरे मे आकर बैठा ही था कि मेरे एक दोस्त आ गये। बाज़ार साग-भाजी लेने जा रहे थे। मैने उनसे अपनी तम्बोलिन की खूब तारीफ की। वह महाशय जरा सौन्दर्य-प्रेमी थे और मज़ाकिया भी। मेरी ओर शरारत-भरी नजरों से देखकर बोले--इस वक्त तो भाई, मेरे पास पैसे नहीं है और न अभी पानी की ज़रूरत ही है। मैंने कहा--पैसे मुझसे ले लो।

'हाॅ यह मजूर है, मगर कभी तकाजा मत करना।'

'यह तो टेढ़ी खीर है।'

'तो क्या मुफ्त मे किसी की ऑख में चढना चाहते हो?'

मजबूर होकर उन हजरत को एक ढोली पान के दाम दिये। इसी तरह जो मुझसे मिलने आया, उससे मैंने अपनी तम्बोलिन का बखान किया। दोस्तों ने मेरी खूब हॅसी उड़ायी, मुझ पर खूब फबतियाॅ कसी, मुझे 'छिपे रुस्तम' 'भगत जी' और न जाने क्या-क्या नाम दिये गये लेकिन मैंने सारी आफते हँसकर टाली। यह दाग़ मिटाने की मुझे धुन सवार हो गयी।

दूसरे दिन जब मैं तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने फ़ौरन पान बनाये और मुझे देती हुई बोली--बाबू जी, कल तो आपकी बोहनी बहुत अच्छी हुई, कोई साढ़े तीन रुपये आये। अब रोज बोहनी करा दिया करो।

तीन चार दिन लगातार मैने दोस्तों से सिफारिशें की, तम्बोलिन की स्तुति गायी और अपनी गिरह से पैसे खर्च करके सुर्खरूई हासिल की। लेकिन इतने ही दिनों में मेरे खजाने में इतनी कमी हो गयी कि खटकने लगी। यह स्वॉग अब ज्यादा दिनों तक न चल सकता था, इसलिए मैंने इरादा किया कि कुछ दिनो उसकी