गीता-हृदय ? ? ? या सही करेगा भी। किया भी आसिर क्या जाय मगर तव गास्त्रकी वातकी कीमत क्या रही एक ही शास्त्र-वचनके हजार अर्थ हो मकते है अपनी-अपनी समझके अनुसार, और यह एक खासा तमाशा हो जायगा। एक बात और भी है। यदि मनुकी ही समझके अनुसार चलना हो तो बुरे-भलेका दोप-गुण मनुपर न जाके करनेवालेपर क्यो जाय वह अपनी समझमे तो कुछ करता नहीं। उमकी अपनी समझको तो कर्म-अकर्मके सम्बन्धमे कोई स्थान हई नहीं। उसे मनुका प्राशय ठीक- ठोक ममझना जो है । और अगर यह बात नहीं है तो शास्त्रके आदेश और विधि-विधानका प्रयोजन ही क्या है ? यदि मनुके माथे दोष-गण न लदे इम सयालमे करनेवालेको अपनी ही बुद्धिसे समझना और करना है तव शास्त्र वेकार है । यह क है कि जिसे अधिकार दिया गया है उसीपर जवाबदही आती है। मगर यह जवाबदेही तो विना शास्त्रके भी आई जायगी। चाहे शास्त्रकी बाते अपनी अक्लसे समझके करे या विना शास्त्र-वास्तके ही अपनी ही समझसे जैसा जंचे वैसा ही करे। दोनोका मतलव एक ही हो जाता है। फलत शास्त्र सटाईमें ही पड़ा रह जाता है। यही समझके अर्जुनने गका की थी कि "जो लोग शास्त्रीय विधि-विधानका झमेला, किसी भी तरह, छोटके श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करते है उनकी हालत क्या होगी? वे क्या माने जायें-सात्त्विक, राजस या तामस ?" -"ये गास्त्रविविमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता । तेपा निष्ठा तु का कृष्ण मत्त्वमाहो रजस्तम" (१७११) । गीतामें इसका जो कुछ उत्तर दिया गया है वह यही है कि गास्यकी बात तो यौही है। इमीलिये इमै बच्चाको फुमलानेवाली चीज पुराने लोगोने मानो है-"बालानामुपलालना" । अमली चीज जो कर्मके म्वल्पको निश्चित करनी है वह है करनेवालेकी श्रद्धा ही। जैमा हमारी -
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