श्रद्धाका स्थान प ? कारण जैसी ही श्रद्धाके साथ काम किया जायगा वैसा ही भला या बुरा होगा। सात्त्विक श्रद्धावाला बहुत अच्छा, राजसवाला बुरा और तामसवाला बहुत ही खराब समझा जाना चाहिये। इसका मतलब समझना होगा । हरेक कर्मके करनेवालेका वश परिस्थितिपर तो होता नही कि वह विद्वान हो, विद्वानोके बीचमे ही रहे, पढने-लिखने की पूरी सामग्री उसे मिले, उसकी द्धि खूब ही कुशाग्र हो, वह भूल कभी करी न सके। ऐसा होनेपर वह मनुष्य ही क्यो हो और उसके कर्तव्याकर्तव्यका झमेला ही क्यो उठे ? वह तो सब कुछ जानता ही है। एक बात और । वह शास्त्रोके वचनोके अनुसार ही काम करे, यह तो ठीक है । मगर सवाल तो यह है न, कि उन वचनोका अर्थ वह समझे कैसे ? किसकी बुद्धिसे समझे ? कल्पना कीजिये कि मनुने एक वचन कर्त्तव्यके बारेमे लिखा है जिसका अर्थ समझना जरूरी है। क्योकि बिना अर्थ जाने अमल होगा कैसे ? तो वह अर्थ मनुको ही बुद्धिसे समझा जाय या करनेवालेकी अपनी बुद्धिसे ? यदि पहली वात हो, तो वह ठीक-ठीक समझा तो जा सकता है सही, इसमे शक नहीं। मगर करनेवालेके पास मनुकी बुद्धि है कहाँ ? वह तो मनुके ही पास थो और उनके साथ ही चली गई। अव यदि यह कहे कि करनेवाला अपनी ही बुद्धिसे मनुके वचनका भाव समझे, क्योकि मनुकी बुद्धि उसमे होनेसे तो वह भी खुद मनु बन जायगा और समझनेकी जरूरत उसे रहेगी ही नहीं, तो दिक्कत यह होती है कि अपनी बुद्धिसे मनुका आशय कैसे समझे ? जो चीज मनुकी बुद्धिमे समाई वही वैसे ही उसकी बुद्धिमे तभी समा सकती है जब उसे भी मनु जैसी ही बुद्धि हो। मगर यह तो असभव है ऐसा कही चुके है। सभी लोग मनु कैसे बन जायेगे ? फलत जैसा समझेगा गलत या सही वैसा ही ठीक होगा । दूसरा उपाय है नही। फिर तो वैसा ही गलत 5 "
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