कर्मका पचड़ा शास्त्रो और पुस्तकोको भी क्या बात कही जाय ? एक-दो या दस- बीस हो तव न ? यहाँ तो जितने मुनि उतने मत है-जितने लेखक उनसे कई गुना किताबे है। हिन्दुओके ही घरमे एक व्यासके नामसे जाने सैकडो पोथियाँ है । खूबी तो यह कि वह भी एक दूसरेसे नही मिलती है | उनमे भी परस्पर विरोधी बाते सैकडो है, हजारो है । तब किसे माने किसे न माने ? और जब एककी ही लिखी बातोकी यह हालत है, तो विभिन्न लेखकोका खुदा ही हाफिज | उनके वचनोमे परस्पर विरोध होना तो अनिवार्य है | भिन्न-भिन्न दिमागोसे निकले विचार एक हो तो कैसे ? सभी दिमाग एक हो तो काम चले । मगर यह तो अनहोनी वात ठहरी । फलत शास्त्रोके द्वारा किसी कामके भले-बुरेपनका निर्णय भी वैसा ही समझिये। यदि चुनावके जरिये राय लेके जो बहुमतसे तय पाये वही कि माना जाय तब तो और भी गडबडी होगी । समूचे ससारका मत तो मिलो नही सकता। एक देश या प्रान्तको भी यही हालत है । उलटा-सीधा समझाने- वाले तो होते ही है । उसीसे गडबड होती है । जोई लोग एक बार एक तरहकी राय देते है वही औरोके समझानेपर दूसरी बार बदल दे सकते है। उन बेचारोका इसमे कसूर भी क्या ? उन्हे समझ हो तब न ? और अगर यही समझ हो जाय तो फिर शास्त्रकी जरूरत ही क्यो हो ? समझदारोके लिये तो वह चाहिये नही । सबोको समझदार बना देना तो असभव भी है। समझको कोई नाप-जोख भी तो नहीं है कि वह कितनी चाहिये, कैसी चाहिये । इसका पता भी कैसे लगेगा? और अगर यही बात हो जाय तो गलत प्रचारकी महिमा ही चली जाय । एक ही मुकदमेमे ऐसा देखा जाता है कि वह जितने न्यायाधीशोके सामने जाता है उसका उतने ही ढगका मतलब लगता है। इसीलिये महाभारतवाले उक्त वन- पर्वके वचनमे साफ लिख दिया है कि "तर्क-दलीलका तो ठिकाना ही नही, ,
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