अठारहवाँ अध्याय समयके रूपके बाद विश्वदर्शनके समय विश्वरूप आया था. "उससे निकटका यही पडता था। इसलिये एतत् कहतेसे स्वभावत लोग इसे ही समझ सकते थे। क्योकि पहला रूप अपेक्षाकृत इससे दूर पड जाता था। इसीलिये सजयने 'तत्' कह दिया और सारा झमेला ही खत्म हो गया। क्योकि अब तो मौका ही न रहा कि विश्वरूपका खयाल भी किया जाय । मगर जो लोग फिर भी विश्वरूपको ही मानते है उनके लिये तत्का औचित्य बताना कठिन है। गीतोपदेशकी बातोका उपसहार करते हुए अन्तमे सजयने धृतराष्ट्रको धोकेमे रखना उचित न समझ विजय तथा पराजयके सम्बन्धमे भी अपनी स्पष्ट राय दे दी कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा। इसका कारण भी धीरेसे बता दिया । जिस पक्षमे योगेश्वर कृष्ण हो जो सभी युक्तियोके आचार्य है और जहाँ पार्थ जैसा धनुर्धर हो उस पक्षकी जीत न होगी तो होगी किसकी यह तो मोटीमी बात है। शायद धृतराष्ट्रके मनमे कुछ आशा बँधी थी। क्योकि एक तो वह अपने लडकोके मोहमे बुरी तरह फंसा था। दूसरे लोभ और मोहके करते. उसकी विवेक-शक्ति नष्ट हो चुकी थी। ऐसी दशामे गीतोपदेशका युद्धपर क्या असर होगा यह बात वह शायद ही समझ सकता था। यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीविजयो भूतिधुवा नीतिर्मतिर्मम ॥७॥ जहाँ---जिस पक्षमे-योगेश्वर कृष्ण है (और) पार्थ (जैसा) धनुर्धर है वही लक्ष्मी, विजय, ऐश्वर्य और पक्की-अटल-नीति है, यही मेरा निश्चय है ।७८। अटल और पक्की नीति जही रहेगी वही विजय भी होगी और उसके बाद उसमें स्थिरता भी आयेगी। इसीलिये तो भारविने किराता- र्जुनीयमे कहा है कि जिस चीजको दुर्योधनने जैसे-तैसे जीत लिया था वह ?
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