६३० गीता-हृदय सुनना तो पहले ही हो चुका था। उस समय तो उसीकी स्मृति मात्र थी। फिर भी रह-रहके वह गद्गद हो जाता है, यह खुद स्वीकार करता हुआ कहता है कि- राजन् सस्मृत्य सस्मृत्य सम्वादमिममद्भुतम् । केशवार्जुनयोः पुण्य हृष्यामि च मुहुर्मुहु ॥७॥ हे राजन्, केशव तथा अर्जुनके इस महान सवादको (इस समय भी) बार-बार याद करके रह-रहके गद्गद हो जाता हूँ॥७६॥ यह सवाद ऐसा निराला है कि हमेशा ताजा ही मालुम पडता है। इसीलिये कुछ समय बीतने पर भी जब सजय उसे केवल याद कर पाता है, तो भी वह जैसे आंखोके सामने नाचता रहता है और अोझल नहीं होता। यही कारण है कि उसे 'तम्' न कहके 'इमम्' कहता है । 'त' कहनेसे परोक्ष या पोझल जान पडता न ? मगर सो तो है नहीं। यह ठीक है कि उसका वर्णन तो अभी-अभी हुअा है। इसीलिये पहले भी 'तत्'की जगह 'एतत्' ही आया है । मगर यह बात इनकार नहीं की जा सकती कि वह दिमागमे नाचता जरूर था। नही तो साधारण चीज होने पर कभी 'तम्' भी जरूर कह देते । सारा वर्णन ही यही सूचित करता है। इतने पर भी वह सवाद अलौकिक होता ही नही यदि अर्जुनकी उस समयकी अलौकिक मनोवृत्तिके साथ ही गीताधर्मके उपदेशक एव प्रथमाचार्य कृष्णकी भावभगी भी दिव्य और अलौकिक न होती। दरअसल सारी खूबी और सारा मजा तो उप- देशककी भावभगी और प्रतिपादन शैलीमें ही होता है। इसीलिये सजय स्वयमेव कृष्णकी उस निराली भावभगीकी ओर इशारा करता हुआ कहता है कि- तच्च सस्मृत्य सस्मृत्य रूपमत्यद्भुत हरेः । विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः ॥७७॥
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