१२८ गीता-हृदय भी सुन ? करते जाते न थे और न माईक्रोफोन पर बैठके ही वाते करते थे कि सजय लेता । और अगर मजय सुनता तो धृतराष्ट्र भी जरुर सुनता। फिर इस प्रश्नोत्तरकी जरूरत दोनोके बीच क्यो होती कि कुरुक्षेत्रमै क्या हुआ, क्या नहीं ? लोगोके अलावे खुद धृतराष्ट्रको ही शक हो सकता था कि सजय बाने तो नहीं बना रहा है ? यह ठीक है कि व्यासजीने उससे कह दिया था कि यह सजय सारी बाते बैठे-बिठाये जान जायगा। क्योकि इसे मैं दिव्य दृष्टि (television) दिये देता हूँ। इसीलिये दिनरात मे जब कभी धीरे या जोरसे वाते होगी वा और भी जो काम होगे, यहाँ तक कि लोगोके मनमे भी जो कुछ वाते आयेगी सभी इमकी आँखोके सामने नाचने लगेगी। फलत अथसे इति तक युद्धका सारा वृत्तान्त तुम्हे ज्योका त्यो सुना देगा,-"एप ते सजयो राजन् युद्धमेतहादिष्यति । एतस्य सर्व- सग्रामे न परोक्ष भविष्यति ॥ चक्षुषा सजयो राजन्दिव्येनैव समन्वित । कथयिष्यति युद्ध च सर्वज्ञश्च भविष्यति ॥ प्रकाश वाऽप्रकाश वा दिवा वा यदिवा निशि । मनसाचितित मपि सर्व वेत्स्यति सजय" (महा० भीष्म० ६।६-११) । लेकिन धृतराष्ट्रकी बुद्धि तो उस समय मारी गई थी। वह ठिकाने न थी। वह बुरी तरह परीशान भी था। व्यासजीसे भी उसने साफ ही यह बात स्वीकार की थी। इसलिये उसके मनमे ऐसा खयाल होना असभव न था। कुटिल तो था ही । और उसे चाहे भले ही शक हो, या न हो, किन्तु लोगोको तो हो सकता था ही। क्योकि व्यासका यह प्रबन्ध सब लोग तो जानते न थे। गीतामें कही पहले यह वात प्राई भी नहीं है। महाभारतमें लिखी होने पर भी गीता तो स्वतत्रसी चीज है न केवल गीतापाठीको भी ऐसा खयाल न हो इसीलिये आगेके चार श्लोकोमेसे पहले दोमें सजयने खुद यही बात कही है कि व्यासजीकी कृपासे ही मैने यह सब कुछ सुना है। शेष दोमे इस गीतोपदेशकी अलौकिकता तथा कृष्णकी उस समयकी अलौकिक भावभगीका निरूपण किया है। ? फलत
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