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अठारहवाँ अध्याय १२७ नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥७३॥ (इसपर चट) अर्जुनने उत्तर दिया कि) हे अच्युत, आपकी कृपासे (मेरा) मोह भाग गया, (वह) स्मृति (पुनरपि) जग उठी और मै सन्देह- रहित-स्थितप्रज-हो गया हूँ। (इसलिये) आपकी बात मानूंगा ।७३। इसमे 'स्मृतिर्लब्धा'की ही तरह 'स्थित' शब्द भी मार्केका है। क्योकि द्वितीय अध्यायमे स्मृति और समोहकी बाते स्थितप्रज्ञके ही प्रसगसे आई है। इसलिये स्वाभाविक ही है कि समोह हटनेपर स्मृति फिर जग उठे और मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाय । फलत अर्जुनने जो उत्तर दिया उसमे स्थितप्रज्ञका निर्देश भी जरूरी था और उसीके मानीमे ही 'स्थितोऽस्मि' आया है। इसमे और स्थितप्रज्ञ कहनेमे जरा भी अर्थभेद या अन्तर नही है। हमने यही अर्थ लिखा भी है। स्थितप्रजकी पहचान पहले ही बताई गई है। उसकी सबसे बडी खूबी यह होती है कि अपने लिये उसे कुछ करना रही नही जाता। फलत जो कुछ भी वह करता है लोकसग्रहकी ही दृष्टिसे। इसीलिये अर्जुनने यह कहनेकी अपेक्षा कि “करिष्ये धर्म- मात्मन -"अपना धर्म करूँगा", यही कहना उचित समझा कि "आपकी वाते मानूंगा"--"आप जैसा कहते है वही करूँगा"--"करिष्ये वचन तव" । इससे कृष्णको और भी पूरा यकीन हो गया कि अर्जुनने अच्छी तरह हमारा उपदेश सुना है, समझा है और काम भी तदनुसार ही करेगा। इस तरह कृष्ण और अर्जुनके सवादको सजयने धृतराष्ट्रसे ज्योका त्यो सुना दिया। यहाँ लोगोको यह खयाल हो सकता है कि उसने मनगढन्त वाते ही कही होगी । क्योकि भीषण सग्रामकी स्थलीसे बहुत ज्यादा दूर बैठे-बैठे सारी बाते आखिर उसे मालूम कसे हुई ? वहाँ तो कोई टेलिफोन या तार भी न था और न वेतारका तार ही। और अगर होता भी तो इससे क्या ? सजयके साथ उसके जरिये कृष्ण और अर्जुन तो वाते