१२६ गीता-हृदय हे पार्थ, भला कहो तो कि आया तुमने यह उपदेश एकाग्र चित्तसे सुना है (और अगर हाँ, तो) आया तुम्हारा (वह) अज्ञानसे उत्पन्न हृदयका अन्धकार मिटा है ११७२। कच्चित् शब्द वही बोला जाता है जहाँ उत्तरके बारेमें सन्देह हो और पूछनेवालेका मन खुद आगा-पीछा करता हो कि देखें क्या होता है।' यहाँ "अज्ञानसमोह "मे समोह वही है जिसका वर्णन "क्रोधाद्भवति समोह समोहात्स्मृतिविभ्रम" (२१६३)मे आया है। वहाँ समोहका परिणाम लिखा है स्मृति-विभ्रम या स्मृतिका गायब हो जाना । अर्जुनने इसी स्मृति- विभ्रमके फेरमें ही तो न लडनेका निश्चय कर लिया था। हम इसका अर्थ वही अच्छी तरह बता चुके है । कृष्णका खयाल था कि यदि अर्जुनने ठीक-ठीक सुना और समझा होगा तो फौरन वह यही उत्तर देगा कि हमें स्मृति मिल गई । समोह कहनेमें कृष्णका दूसरा मतलब था । साधारणत दिल-दिमागकी सफाईकी बात तो थी ही । मगर ऐसा भी तो हो सकता था कि अर्जुन उन्हे खुश करनेके ही लिये कह देता कि हाँ, हमने सब कुछ समझ लिया । तब क्या होता? तब तो सब कुछ बेकार हो जाता। किन्तु इसकी पहचान कैसे हो कि उसने आया सचमुच ही समझा है और मान लिया है, या केवल शिष्टाचारकी बाते करता है ? इसीलिये समोह पद दिया। क्योकि इसका सम्बन्ध स्मृति-विभ्रमसे है । फलत अगर अर्जुनने ध्यान देके सुना और समझा है तो जरूर ही कह देगा कि स्मृति प्राप्त हो गई । लेकिन यदि ऐसा न होगा तो कुछ और ही बोलेगा। और कृष्णकी प्रसन्नताका क्या ठिकाना रहा होगा जब उनने सुना कि अर्जुन ठीक वही "स्मृतिर्लब्धा" ही बोल उठा बस, उनने जान लिया कि अर्जुनने यह उत्तर शिष्टाचारसे न देके सचमुच ही हृदयसे दिया है और उसे हमने जो भी उपदेश दिया है उसका उसपर पूरा असर हुआ है । "ध्यायतो विषयान्पुस" तो आखिर उसी उपदेशका अमली और व्यावहारिक रूप ही था न ? ?
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