अठारह्वाँ अध्याय १२५ सवाल उठता ही नही। वह तो निर्वाणमुक्त हो जाता है । उसका आना- जाना कही होता नहीं । यह भी तो प्रश्न है कि केवल सुननेवाला मुक्त होगा भी कैसे ? यह तो सबसे नीचे दर्जेका है न ? लोकका अर्थ वह प्रगतिशील समाज ही है जहाँ ज्ञानचर्चाकी अनुकूलता हो । स्वर्गादि लोकोकी वात यहाँ उठाना गीताधर्मके अनुकूल नही है । गीता तो ज्ञान- मार्गकी चीज है न ? फिर भी यदि कोई लोक शब्दसे स्वर्गादि भी समझ ले तो हमे उससे इनकार नही है। मगर केवल उसे ही न समझ प्रगतिशील समाजको भी लोकके अर्थमे लेना ही होगा। इस तरह कृष्णको जो कुछ कहना था कह दिया। गीताधर्मके उप- देशके वाद भविप्यमे उसके प्रचारकी व्यवस्था भी कर दी। इसे ही सम्प्र- दाय कहते है और परम्परा भी, जैसी कि चौथे अध्यायके शुरूमे ही विवस्वान्, मनु आदिकी परम्परा कही गई है । फिर भी वह परम्परा या सम्प्रदाय आजकी तरह पेगा और दूकानदारी न बन जाये, इसीलिये पहले ही श्लोकमे कह दिया है कि किन लोगोसे ये वाते कही जायें। वादके श्लोकोमे तो कौन कहे, कौन न कहे आदि बन्धन भी लगा दिये गये है। अन्तमे, जैसा कि पहले ही कह चुके है, कृष्णने यह मुनासिब समझा कि जरा पूछ तो देखे कि इन वातोका अर्जुनपर क्या असर हुआ है । क्योकि इससे भविष्यके वारेमे भी उन्हे निश्चिन्त हो जानेकी बात थी। कमसे कम यह तो समझ जाते जरूर ही कि हम एव अर्जुन भी कितने गहरे पानीमे है। इसीलिये उनने पूछा, और यह जानके उनकी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा कि अर्जुनने न सिर्फ गौरसे उनके उपदेशोको सुना, वल्कि समझा भी पूरी तरहसे और तैयार भी वह हो गया तदनुकुल ही । यही प्रश्न और उत्तर आगेके दो श्लोकोमे क्रमश आये है। कच्चिदेतच्छृतं पार्य त्वयैकाग्रेण चेतसा । कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय ॥७२॥
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