६२४ गीता-हृदय यहाँ 'अतपस्क'से मतलब है जिसमे पूर्वोक्त कायिक, वाचिक, मानसिक तपोमे कुछ भी पाये न जाये। वे तीनो प्रकारके तप ऐसे है कि उनसे ज्ञानकी योग्यता होती है और मनुष्य गीताधर्म समझनेके योग्य बन जाता है। इसीलिये उनकी आवश्यकता है । यही कारण है कि जिनमे वे या कमसे कम उनमेंके मुख्य तप न पाये जाये उसे गीताधर्म सुनाना "भैसके आगे बीन बजाये, सो बैठी पगुराये"को ही चरितार्थ करना होगा। इन श्लोकोमे 'मा' या 'मद्' शब्द भगवानके वाचक न होके आत्मा-परमात्माके ही वाचक है, यह भूलनेकी बात नहीं है । भक्तिका अर्थ पहले श्लोकमें अपराभक्ति या पूर्वोक्त चार भक्तियोमेंसे जिज्ञासुवाली भक्ति ही है। इसीलिये चौथी या ज्ञानरूपा भक्ति आगे कही गई है। दूसरे श्लोकमे भी 'भक्तेषु'का अर्थ जिज्ञासु ही है । जिज्ञासुको ये बातें सुनाना ही ज्ञानका अभ्यास और मनन हो जाता है । फलत ज्ञानकी पूर्णतामे जो कमी रहती है वह पूरी हो जाती है। किन्तु जिसका ज्ञान पूर्ण हो उसके सम्बन्धमे जब यह श्लोक लाग होगा तो " भक्ति मयि परा कृत्वा" पहले ही आयेगा और अर्थ यह होगा कि जो मुझमे पराभक्ति करके मेरे भक्तोको यह सुना- येगा उसे भी मुक्ति होगी ही। यह सुनाना उसमे वाधक न होगा। यह कथन गीताधर्मके सम्प्रदायके प्रचलित करनेके ही खयालसे है। इसके बादके दो श्लोक गीताकी प्रशसाके लिये है। लोग इसमे प्रवृत्ति करें इसीलिये कह दिया है कि पठन-पाठन भी ज्ञानयज्ञ है, जिससे भगवान या आत्माकी पूजा ही होती है । फलत धीरे-धीरे मनुष्य प्रगतिकी ओर चलने हुए पूर्ण ज्ञानी बनता है । जो पढ भी न सके उसे दूसरे पढने- वालोके मुखसे सुनना ही चाहिये। अगर श्रद्धापूर्वक भक्तिसे कोई सुने, तो आगे चलके उसका भी कल्याण होके ही रहेगा । यहाँ अन्तिम श्लोकमे 'मुक्त' शब्दका मुक्ति या मोक्ष अर्थ न होके प्रयाण, मरण या शरीरका त्याग ही अर्थ है । क्योकि मुक्ति होनेपर पुण्यकर्मियोके शुभ लोकमे जानेका
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