अठारहवाँ अध्याय ९१६ उस पूर्ण ज्ञाननिष्ठाका निरूपण भी किया है। मगर यह तो कही नही कहा है कि कर्मोंके स्वरूपत त्यागके बिना काम चली नही सकता। अर्थत यह बात सिद्ध जरूर हो गई है, हो जाती है। फिर भी साफ शब्दोमे कहे बिना काम चलता नही । लोग खीचतान शुरू जो करेगे और जोई मानी चाहेगे शब्दोको पिन्हा जो देगे । इसीलिये साफ-साफ कह देना जरूरी था कि बिना स्वरूपत कर्मोका सन्यास या त्याग किये आत्मनिष्ठा होई नही सकती। अन्तमे ही इस बातका आ जाना भी सबसे अच्छा था। इसीलिये आगेके तीन श्लोकोमेसे पहलेमे तो पुनरपि यह बात कहनेका कारण लिखा गया है, दूसरेमे अात्मनिष्ठाका पूरा स्वरूप खडा कर दिया है और तीसरेमे साफ कह दिया है कि बेफिक्र होके सभी कर्मोके फन्दोको तोड डालो। तभी एकमेवाद्वितीय आत्मतत्त्वमे पूर्णतया लग सकते हो और तभी सारे झमेले खत्म हो सकते है । सर्वगुह्यतम भूयः शृणु मे परमं वचः । इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥६४॥ मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥६५॥ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरण वज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥६६॥ सबोसे अधिक गोपनीय मेरी यह आखिरी वात फिर सुन लो। तुम मेरे अत्यन्त प्यारे हो, इसीसे तुम्हारे हितकी बात कहे देता हूँ। मुझ आत्मामे ही मन लगाओ, मेरा ही भजन करो, मेरा ही यजन करो (और) मुझीको नमस्कार करो। (परिणामस्वरूप) मुझीको पा जानोगे । यकीन रखो, मेरे प्रिय हो, तुमसे सच कहता हूँ। सभी धर्मोको छोडके एक मेरी ही शरण जानो। मै (आत्मा) तुम्हे सभी पापोसे छुटकारा दिला दूंगा, अफसोस मत करो।६४।६५।६६।
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