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अठारहवां अध्याय ९१७ था या नही, नायाब था या नही । मजयने उसे 'अत्यद्भतम्' कह दिया है। एक तो अद्भुत चीज ही निराली है। मगर उसे इतनेसे ही सन्तोष न हुआ और उसके साथ 'अति' भी जोड दिया। हम उस श्लोकके अर्थके ही समय विशेष वाते लिखेगे। यहाँ तो केवल दोनोको एक साथ पढके कृष्णकी अलौकिक भावभगीका चित्र दिमागमे बैठानेकी ही बात कहनी है। वह ऐसी थी कि सजयका मन मानता न था। फलत बार-बार उसे भीतरी आँखोके सामने ला खडा करता था। यह भी “सस्मृत्य सस्मृत्य" शब्दोने साफ ही कह दिया है। केवल साधारण स्मृति न थी। किन्तु अलौकिक वस्तुकी अलौकिक स्मति थी, अनोखी याद थी। इसीलिये तो 'सम्' लगाके 'सस्मृत्य' कहना पड़ा। उसके साक्षात् देखनेपर क्या दगा हुई होगी, जब कि याद करने मात्रसे ही बार-बार रोएँ खडे हो जाने थे, हर्षातिरेक बह चलता था, "हृष्यामि च पुन पुन"। इसीलिये सजयको भी मामूली नही, किन्तु महान् विस्मय, पीछेतक बना हुआ था-"विस्मयो मे महान्" | जैसी अलौकिक वस्तु देखी थी और बार-बार याद की थी उसी हिसाबसे ही तो आश्चर्यचकित होना भी था । गीताकी तीसरी चीज थी भगवानकी विराट मूर्ति या विश्वरूप । वह भी वाकईमे "न भूतो न भविष्यति” ही था। इसमे भी स्वय गीताके ही वचन प्रमाण है । वह रूप दिखा चुकनेके वाद खुद कृष्णने दो बार कहा है कि "तुमसे पहले यह रूप किसीने देखा ही नहीं, किसीने देख पाया ही नही"-"यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्” (१।४७), और, “तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई भी, सभी प्रकारके यज्ञ दानादिके द्वारा यत्न करके भी, इसे आगे देख न सकेगा-“एव रूप शक्य अह नृलोके द्रप्टु त्वदन्येन कुरु- प्रवीर" (११।४८)। इससे बढके "न भूतो न भविष्यति'की सफाई और क्या हो सकती है ? गीताकी चौथी अलौकिक चीज है गीताधर्म या गीताके उपदेश ।