अठारहवाँ अध्याय अर्जुनकी शादीतक उनने करा दी थी। जिसे लँगोटियायारी कहते है वही ताल्लुक अर्जुनके साथ उनका था। फलत उसका रगरेशा वह पह- चानते थे, उसे रत्ती-रत्ती जानते थे। जानें कितने ही भीषणसे भीषण सकटके समय पाडवोके सामने आये थे। बचपनमे ही पिताके मर जानेसे वे एक प्रकारसे अनाथ जैसे हो गये थे। क्योकि धृतराष्ट्रका रुख उनके प्रति प्रारम्भसे ही खराब था और यह बात छिपी न थी। ऐसी दगामे विपदाअोके वज्रोके एके बाद दीगरे गिरनेकी बात जितनी न थी उतनी उनकी परीशानी, पामाली तथा असीम कष्टकी बात थी। कोई भी उनका पुसा हाल था जो नही। द्रौपदीकी नग्नताके काडसे यह बात और भी साफ हो चुकी थी। भीष्म आदिकी जबानतकपर ताला लग चुका था। ऐसे मौकोपर बडे भाई युधिष्ठिरतक अधीर हो जाया करते थे । मगर अर्जुनने न तो कभी हिम्मत हारी थी, न बुजदिली दिखाई थी और न आँसू बहाये थे । ऐसा था वह इस्पात और वज्रका वना | कृष्णको यह बात बखूबी विदित थी। क्योकि सबोके साथ छोड देनेपर भी वही तो पाडवोके सदाके सच्चे साथी, पुर्सी हाल थे। फिर जानते क्यो नही ? लेकिन वही अर्जुन गीतोपदेशके पहले बच्चो जैसा रो रहा था। उसके हाथ-पाँवोमे ही क्या, सारे अगमे जैसे लकवा मार गया था। वह खड़ा रह सका नहीं और, जैसे कोई कटा ऐड हो, धडामसे रथके बीचमे पड गया था, गिर गया था | इसमे अनुमानकी भी जरूरत न थी। उसने तो खुद ही कहा था कि मेरा मन जैसे चक्कर काट रहा है और मै खडा रह सकता नही, “न च शक्नोम्यवस्थातु भ्रमतीव च मे मन (१।३०)। जिसका धनुष सदा साथ रहा, बगलमे ही वाणोके साथ पड़ा रहा, वही कह चुका था कि हाथसे मेरा यह गाडीव-सदाका प्यारा गाडीव- खसका जा रहा है, “गाडीव स्रसते हस्तात्” (१।३०)। ऐसी ही जाने कितनी बाते थी जो अनहोनी थी। अर्जुनके मनमे जो ग्लानि थी, जो
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