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'६१२ गीता हृदय है। हे भारत, समस्त ससारको उसीका स्वरूप जानो और इसी रूपमें उसकी शरण जायो। उसीकी कृपासे परम शान्ति और शाश्वत स्थान पा जाओगे।६११६२। ६१वे श्लोककी पूरी व्याख्या पहले ही हो चुकी है। ६२वेमें जो 'सर्वभावेन' पद है ऐसा ही पद पहले भी “स सर्वविद्भजति मा सर्वभावेन भारत" (१५।१६) मे आया है। अन्तर यही है कि वहाँ 'भजति' है और यहाँ 'शरण गच्छ' है। मगर मानी दोनोके एक ही है । भजने या शरण जानेका ही रूप “सर्वभावेन" कहा है। "वासुदेव सर्वमिति"की ही तरह सभीको आत्मा-परमात्मामय ही देखना यही शरण जाना है । इस प्रकार उपदेश करके उसका उपसहार करते हुए अर्जुनको मौका देते है कि वह खूब सोच-विचार ले, तभी कुछ करे। कही ऐसा न हो कि आवेशमे आके या बातोमे पडके कुछ कर डाले। क्योकि ऐसे कामोका नतीजा कभी अच्छा नहीं होता। लेकिन इसीके साथ उसे यह भी याद रखना होगा कि जो उपदेश दिये गये है वह ऐसे-वैसे नही है, किन्तु दुर्लभ और गोपनीयसे भी गोपनीय है। ऐसी बाते शायद ही सुननेको कभी मिलती है, कभी मिले । इसलिये इनपर पूरा गौर करना होगा। इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया । विमृश्यतवशेषेण यथेच्छसि तया कुरु ॥६३॥ मैने तुम्हें यह गोपनीयसे भी गोपनीय अक्ल और सोचने-विचारनेकी बात कही है। इसपर खूब अच्छी तरह सोच-विचारके जो चाहो सो करो। ६३ श्लोकसे स्पष्ट है कि जो कुछ उपदेश है वह ज्ञान ही है, न कि और कुछ । चाहे जितनी बातें भी शुरूसे अन्ततक आई हो सव ज्ञानके ही मिलसिलेमे पाई है। गीतोपदेशका असली विषय ज्ञान ही है । उसीके भीतर विज्ञान भी आ जाता है। फिर भी जो यह कह दिया है कि समझ-