६१० गोता-हृदय 1 सा शरीरमे ? इसीका उत्तर दिया है कि "अात्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्मनेवाय ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति" (४१३१६) । इसका आशय यही है कि "उस समय मनुष्यकी आत्मा ही ज्योतिका काम करती है और वह उसीके वलसे वैठने, जाने, पाने, लौटने और अन्य सभी कामोमे लग जाता है" । इसपर प्रश्न हुआ है कि वह आत्मा है कौन- ? “कतमोऽयमात्मा ?" '(४१३१७) । क्योकि शरीरके भीतर मन, बुद्धि, हड्डियाँ, मास आदि हजार चीजे है न ? इसीके उत्तरमे कहना पडा है कि वह विज्ञानमय है, सभी इन्द्रियादिको चलाता है और हृदयके भीतर रहता है, "विज्ञानमय प्राणेषु हृद्यन्तज्योति पुरुष" (४१३१७) । उसीके बारेमे यह भी लिखा है कि जागरण और सपना इन्ही दोनो हालतो- मे वह काम-वाम करता है, लीला करता है ऐसा जान पडता है। वह सर्वत्र एक ही है, एकसा ही है, "स समान सन्नुभोलोकावनुसचरति ध्यायती- व लेलायतीव" (४।३।७)। उसके तीन लोक या क्रीडास्थल माने गये है। नमे सुषुप्तिमे तो ससार रहता नहीं। वहीसे कभी सपनेमे जाता और चीजे वनाके मौज करता है, तो कभी जाग्रत दशामे पाके,-"तस्यवा- एतस्यपुरुषस्यद्वे एवस्थानेभवत इद च परलोक स्थान च सन्ध्य तृतीय स्वप्न स्थान तस्मिन्सध्ये स्थाने तिष्ठनेते उभे स्थाने पश्यति" (४१३1८) । यहाँ सन्धि-स्थानको स्वप्न-स्थान कहा है। स्वप्नका अर्थ है गाढ नीद या सुपुप्ति । यहीसे दोनोमे पहुंचता है। जाग्रत्को यह लोक और सपनेको परलोक कहा है। इसके वादसे लेकर १८वे ब्राह्मणके अन्ततक सपनेकी सृप्टिके बनाने और बिगाड़नेकी वात सविस्तार कही गई और लीला बताई गई है। प्रात्मा ही सब कुछ करती है यह भी बताया गया है । अनन्तर गाढ नीद या सुषुप्तिका प्रमग लाके उसका चित्र खीचा गया है। वहाँ यह प्रश्न उठा है कि मुषुप्तिमे कोई पदार्थ आत्माको मालूम क्यो नही होता है ? पदार्थ
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