७६ गीता-हृदय इन श्लोकोमें कहा गया है कि योगवाली बुद्धि एक ही होती है, एक ही प्रकारकी होती है और होती है वह निश्चित, निश्चयात्मक (definite)। उसमें सन्देह, आगा-पीछा या अनेकताको गुजाइश होती ही नही। विप- रोत इसके जो योगसे अलग है, जिनका ताल्लुक योगसे हई नही उनकी बुद्धियाँ बहुत होती है और एक एकको अनेक शाखा-प्रशाखायें होती है। वे अनिश्चित तो होती ही है। कहनेका मतलब यह है कि जहाँ योगीके खयाल पक्के और एक ही तरहके होते है तहाँ दूसरोके अनेक तरहके, कच्चे और सदिग्ध होते है। बात सही भी है। पहले जो कुछ योगके बारेमें कहा गया है उससे यह वात इतनी साफ हो जाती है कि समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती। जब यह कह दिया गया है कि सिवाय कर्मके उसके करने, न करने, छूटने, न छूटने, फल, उसकी इच्छा, कर्मकी जिद्द या उसके न करनेकी जिद्द- इनमें किसी भी-की तरफ मन या बुद्धिको जानेका हक नही है, जाने देना नही चाहिये, जाने दिया जाता ही नहीं या यो कहिये कि जानेकी गुजाइश ही नही रह जाती, तो फिर बुद्धि या खयालका एक अोर निश्चित होना अवश्यभावी है। पहलेसे ही निश्चित एक ही चीज-कर्म-से जब वह डिगने पाता नहीं, तो फिर गडवडकी गुजाइश हो कैसे और अनेकता या सन्देह इसमें घुसने भी पाये कैसे ? मगर जहाँ यह वात नही है और खयालको-बुद्धि या मनको-- अाजादी और छूट है कि फलोकी ओर दौडे, सो भी पहलेसे निश्चित फलो- की ओर नही, किन्तु मनमें कल्पित फलोकी अोर, वह बुद्धि तो हजार ढगकी खामखा होगी ही। एक तो कर्मोके फलोकी ही तादाद निश्चित है नहीं। तिसपर तुर्रा यह कि कर्म करनेवाले रह-रहके अपनी-अपनी भावनाके अनुसार फलोके वारेमे हजार तरहकी कल्पनायें-हजार तरहके खयाल-करते रहते है। यही कारण है कि फल और फलकी
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